षष्ठ कर्म प्रक्षालयन क्रियाएं: नौलि क्रियाएं, पेट की वायु को नियंत्रित कर स्वस्थ बनाने के लिए
नौलि क्रियाएँ
षष्ठ कर्म योग का चतुर्थ सोपान है नौलि क्रियाएँ , ये क्रियाए मुख्यतः वायु से संबंधित हैं | वायुदाब को पेट के भीतर नियंत्रित रख इस क्रिया को किया जाता है। इसके पूरक, कुंभक और रेचक नामक तीन विभाग इसमें महत्व रखते हैं |
नौलि क्रियाओं के तीन स्तर हैं –
1अग्निसार क्रिया,
2 उड़ियान क्रिया,
3 नौलि क्रिया ।
ये सभी क्रियाएं संवेदनशील और जटिल होती है इसलिए किसी विशेषज्ञ के सानिध्य में ही इन्हें किया जाना चाहिए
*नौलि क्रियाओं के लाभ*
शरीर के अंदरूनी अंगों पर अच्छा नियंत्रण रहता है
शरीर शुद्धि की ये लाभदायक प्रक्रिया है
पेट मे जमा मल आसानी से निकल जाता है
नौलि क्रिया से पेट का अच्छा मंथन होता है जिससे पेट मे स्फूर्ति आती है
पाचन क्रिया नियमित और स्वास्थ्य वर्धक बनती है
इससे नाभि, लिवर तथा उदर संबंधी रोग दूर होते हैं।
नौलि क्रिया से भूख अधिक लगती है |
इस क्रिया से वीर्य संबंधी दोष दूर होते हैं ।
*नौलि क्रियाओ की विधि*
सर्व प्रथम आप एक शांत , समतल और स्वच्छ स्थान पर एक आसन लगाकर सुखासन या पद्मासन में बैठ जावे। आप चाहे तो ये सभ क्रियाए खड़े रहकर भी कर सकते है। फिर नीचे दिखाए अनुसार क्रम से क्रियाए करे
*इन सभी क्रियाओं में 3 क्रिया पूरक, कुम्भक, और रेचक का बड़ा महत्व है*
किसी भी प्रकार का प्राणायाम करते समय तीन क्रियाएँ की जातीं हैं- पूरक, कुम्भक और रेचक।
सांस लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं ।
सास को रोके रखने की क्रिया को कुंभक कहते हैं और
सास को छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं ।
कुम्भक भी दो प्रकार का होता है- आन्तरिक कुम्भक और वाह्य कुम्भक। श्वास को अन्दर रोकने की क्रिया को आन्तरिक कुम्भक तथा श्वास को बाहर रोकने की क्रिया को बाहरी कुम्भक कहते हैं। कुम्भक करते समय श्वास को अन्दर खींचकर या बाहर छोड़कर रोककर रखा जाता है।
आन्तरिक कुम्भक- इसके अन्तर्गत नाक के छिद्रों से वायु को अन्दर खींचकर जितनी देर तक श्वास को रोककर रखना सम्भव हो, उतनी देर रखा जाता है और फिर धीरे-धीरे श्वास को बाहर छोड़ दिया जाता है।
वाह्य कुम्भक - इसके अन्तर्गत वायु को बाहर छोड़कर जितनी देर तक श्वास को रोककर रखना सम्भव हो, रोककर रखा जाता है और फिर धीरे-धीरे श्वास को अन्दर खींचा लिया जाता है।
अब मूल विषय नौति क्रिया की विधि जाने
*1. अग्निसार क्रिया*
आप सर्वप्रथम वज्रासन की स्थिति में बैठकर पूरक करें। श्वास को अंदर लें । इसके बाद रेचक करें। श्वास को बाहर निकालें । श्वास को बाहर रोक कर, मन की सहायता से, पेट-नाभि को आगे पीछे करते रहें । फिर धीमे से श्वास लें । यह एक चक्र है | ऐसे तीन चार चक्र करना चाहिए।| यह अग्निसार क्रिया खड़े रह कर भी उसी तरह की जा सकती है ।
*2. उड़ियान क्रिया*
सुखासन या पद्मासन में रह कर पूरक करें । इसके बाद रेचक तथा कुंभम करें। पेट को अंदर की ओर इस प्रकार पिचकाएं कि वह मानो पीठ के भीतरी भाग का स्पर्श कर रहा हो । थोड़ी देर रुक कर सांस लें । यह क्रिया खड़े रह कर भी की जा सकती है ।
*3. नौलि क्रिया*
अग्निसार एवं उड़ियान क्रियाओं के अभ्यास के बाद नौलिक्रिया कर सकते हैं । इस क्रिया में पेट के मध्य भाग को छड़ की भांति बनाकर साधक खड़ा रहे । दोनों हाथ दो जांघों पर रखे। पूरक करते हुए साँस अंदर ले। फिर रेचक करते हुए साँस बाहर छोड़ दे । पेट को अंदर की ओर इस तरह पिचकाएँ कि पीठ के अंदर के भाग से पेट मानों स्पर्श कर रहा हो । इसके बाद दोनों हाथों को जांघो के ऊपर से एक-एक उठावें और छड़ जैसे बने पेट को इधर-उधर हिलाएँ ।
*नौति क्रियाओं में सावधानियां*
सबेरे मल मूत्र विसर्जन के बाद खाली पेट नौलिक्रिया करनी चाहिए ।
भोजन के बाद नौलि क्रिया नहीं करनी चाहिये
14 बरस तक की अवस्था के बच्चों, रोगियों, रक्तचाप वालों तथा अलसर एवं हर्निया वालों, तथा गर्भिणी स्त्रियों को नहीं करनी चाहिए ।
सभी क्रियाए विशेषज्ञ की सलाह पर और उनके दिशानिर्देशों के अनुरूप ही की जानी चाहिए।
भारत माता की जय 🇮🇳
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
नौलि क्रियाओं में मध्य नौलि, दक्षिण नौलि तथा वाम नौलि जैसी क्रियाएं निपुण व्यक्तियों की सहायता लेकर की जा सकती है |
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