अंग्रेजी दवा के नाम पर लूट और सेहत से खिलवाड़ क्या आयुर्वेद नहीं है हमारी पहचान
अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनियों का बेखौफ झूट*
*आयुर्वेद और भारत की पहचान*
जब दुनिया में कोई पैथी नहीं थीं, तब भी भारत में आयुर्वेद था
जब दुनिया में कोई कपड़े पहनना नहीं जानते थे, तब हमारे यहां खादी के कपड़े व रेशम का उत्पादन था।
जब दुनिया पढ़ना लिखना नहीं जानतीं तब हमारे पास बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटीयां थीं , जो बाद में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा बर्बाद की गयी
जब दुनिया जीडीपी नहीं जानती थी तब हमारे पास महान अर्थशास्त्री हुआ करते थें जिनको आज भी दुनिया मान्यता देती आ रही है
जब MBBS नहीं थें तब हमारे यहाँ सफलतम सर्जरी हुआ करती थीं,
सबसे बड़ी बात जब दुनिया में कोई पंथ सम्प्रदाय नहीं था तो सत्य सनातन ही था
भगवान द्वारा रचित कई ग्रन्थ महाग्रंथ हमारे जीवन का मार्गदर्शन करतें थे,
*आज के हालत*
"आयुर्वेद को हर कदम पर अग्नि परीक्षा के लिए कहा जाता है। लेकिन एलोपैथी को सौ गलतियाँ माफ।" ये एक फैक्ट है, या सिर्फ मेरे दिमाग का भ्रम... कहना मुश्किल है।
ताज़ा वायरस के मामले में... पहले *हाईड्रॉक्सिक्लोरोक्विन* को अचूक माना... दुनिया में भगदड़ मची उसको लेने की। फिर उसका नाम हटा लिया, कहा कि वो प्रभावी नहीं।
*सैनिटाइजर* को हर वक़्त जेब में रखने की सलाह के बाद उसके ज़्यादा उपयोग के खतरे भी चुपके से बता दिए गए।
फिर बारी आई *प्लाज़्मा थैरेपी* की। पूरा माहौल बनाया, रिसर्च रिपोर्ट्स आईं, लोग फिर उसमें जी जान से जुट गए। लेने, अरेंज और मैनेज करने और प्लाज़्मा डोनेट करने में भी। और फिर बहुत सफाई से हाथ झाड़ लिया, ये कहते हुए... कि भाई ये इफेक्टिव नहीं है।
*स्टेरॉयड थैरेपी* तो क्या कमाल थी भाई साहब। कोई और विकल्प ही नहीं था। कई अवतार मार्केट में पैदा हुए। कालाबाज़ारी हो गई, बेचारी जनता ने भाग दौड़ करते हुए, मुंहमांगे पैसे दे कर किसी तरह उनका इंतज़ाम किया। अब कहा गया कि ब्लैक फंगस तो स्टेरॉयड के मनमाने प्रयोग का नतीजा है।
*रेमडेसीवीर इंजेक्शन* तो 'जीवनरक्षक' अलंकार के साथ मार्केट में अवतरित हुआ। इसको ले कर जो मानसिक, शारीरिक और आर्थिक फ्रंट पर युद्ध लड़े जाते उनकी महिमा तो मीडिया में लगभग हर दिन गायी जाती। लेकिन अरबों-खरबों बेचने के बाद अब उसको भी 'अप्रभावी' कह कर चुपचाप साइड में बैठा दिया।
दूसरी तरफ 400 रुपये के मासिक खर्च वाले कोरोनिल, 20 रुपए के काढ़े और 10 रुपए की अमृतधारा को हर दिन कठघरे में जा कर अपने सच्चे और काम की वस्तु होने का प्रमाण देना पड़ता है।
*क्लीनिकल रिसर्च ही अगर आधार है तो फिर इतने यू टर्न क्यों? टेस्ट अगर जनता पर ही करने हैं तो फिर हिमालयन जड़ी बूटी वाला खानदानी शफाखाना क्या बुरा है!*
जनता का फॉर्मूला शायद बहुत सीधा है: "महंगा है, अंग्रेज़ी नाम है... तो असर ज़रूर करेगा। साइड इफ़ेक्ट? वो तो हर चीज़ में होते हैं।"
आयुर्वेद मे अगर किसी दिन संजीवनी बूटी आई तो उसको भी लोग नकार देंगे। समझे ना...?
इसलिए अपनें मूल को पहचानों और कसकर पकड़ो लौटो अपनें जड़ो की तरफ और हाँ ये कौन लोग थे कहाँ थे ये हमसे ना पूछो खुद सर्च करो सब कुछ उपलब्ध है, इस डिजिटल लाइफ में कब तक दिमागी रूप से पिछड़े रहोगें और रोते रहोगें आज जब दुनिया बेबस है कोरोना के आगे तो यही हमारा आयर्वेद रास्ता दिखा रहा है , आज हम हीं उस पर प्रश्नचिन्ह लगा रहें हैं, क्या हमें हमारा इतिहास किसी दूसरों से समझना हैं क्या ? जरा सोचो !!!!
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी करें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.