यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 29 जुलाई 2012

जाने क्यूँ लिखना चाहता है! ये दिल कुछ कहना चाहता है!

जाने क्यूँ लिखना चाहता है!
ये दिल कुछ कहना चाहता है!
जाने क्यूँ ये दर्द समझकर,
आंसू बन बहना चाहता है!
...
जन्म से इस दिल में न कोई, नफरत के लक्षण होते हैं!
हमी लोग इस दिल में देखो, लालच के अंकुर बोते हैं!

"बेटा तुम्हारा फ़ोन बज रहा है" पापा की आवाज ने मुझे फोन की बजती घंटी का अहसास कराया. फोन पर किसी की याचना भरी आवाज थी, "मैडम उन्होंने लड़की को जला के मार डाला, लड़की के गरीब मा बाप की कोई नहीं सुन रहा, आप प्लीज थानेदार साहेब को फोन कर दीजिये"| बड़ा बुरा लगा कोई किसी की जान कैसे ले सकता है, थानेदार से बात की तो उन्होंने मदद का पूरा पूरा आशवासन दिया| इस बात को कुछ महीने बीत गए| फिर कोई फोन नहीं आया और मै ये सोच कर की कार्यवाही हो गयी होगी, इस बात को भूल गयी|

जैसे ही मीटिंग ख़त्म हुयी किसी जानी पहचानी आवाज ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा , "नीलम जी", अगर समय हो तो एक शादी में शामिल हो जाईये| आपको बड़े प्यार से बुलाया है| "ठीक है चलते है" बोल के मै उठ खड़ी हुयी| एक कच्ची झोपड़ी के घर के सामने हमारी यात्रा का अंत हुआ| गरीब होते हुए भी प्यार और मान में कोई कमी नहीं थी| बूंदी, भुजिया, आलू की सब्जी, पूरी से भरी थाली सामने आई और हमने खाना शुरू किया| तभी परिवार के मुखिया ने बोला "मैडम आपने निमंत्रण का मान रखा, उसके लिए धन्यवाद|" " आपने इतने आग्रह से बुलाया था तो आना ही था" मैंने उन्हें विनम्रतापूर्वक जवाब दिया| " अरे बुलाते कैसे नहीं आपकी वजह से ही तो हमारी बेटी का केस सुलझा पाए है"| "कौन सा केस?" मैंने पूछा| " वही जिसे उसके ससुराल वालों ने जला के मार डाला था" जवाब मिला| "तो उन्हें सजा हो गयी" बोलते हुए मुझे इन्साफ मिलने के सकून का अहसास हुआ| " नहीं मैडम| आपके प्रयास से पुलिस सक्रीय हुयी तो ससुराल वालों पे दवाब पड़ा और समझौता हो पाया"| " समझोता???????? कैसा समझौता????" मैंने आश्चर्य से पूछा| " मैडम बेटी के छोटे छोटे दो बच्चे थे| अगर उसके पति, ससुर और सास को सजा हो जाती उनको कौन पालता| इसलिए हम अपनी छोटी बेटी की शादी उसके साथ कर रहे है| आज उसी की शादी है"| सुनकर मेरी आश्चर्य की सीमा नहीं रही| "आप अपनी ही बेटी के कातिल से अपनी दूसरी बेटी की शादी कैसे कर सकते है?" मै लगभग चिल्ला ही पड़ी| " मैडम हम गरीब लोग है| व्यवहारिक होना पड़ता है| जो बेटी चली गयी वो तो वापस नहीं आएगी, पर उसके बच्चों की पूरी जिंदगी पड़ी है. हम जब तक जिन्दा हैं तब तक उनका ख्याल रख भी ले पर हम बूढ़े लोगों का कोई भरोसा है, हमारे बाद उनका क्या भविष्य होगा| जो इस दुनिया में नहीं है उसके बारे में सोच कर, जो इस दुनियां में है उनकी जिंदगी तो ख़राब नहीं कर सकते......." वो बोलते जारहे थे और मै यह सोच के हैरान परेशां थी, कि क्या गरीबी इन्सान को इतना मजबूर कर देती है कि इंसान अपने ही बच्चे की लाश पर समझौता करने पर मजबूर हो जाता है| हर निवाला निगला हुआ लग रहा था जैसे कलेजे में कुछ अटक रहा है.....

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी करें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

function disabled

Old Post from Sanwariya