*धर्म बिकाऊ है*
कभी सोचा है कि धर्म भी अब ‘पैकेज’ में मिलने लगा है?
• ₹11,000 दीजिए — सामने बैठकर पूजन कीजिए।
• ₹51,000 दीजिए — स्वर्ण कलश पर आपका नाम।
• ₹1,00,000 दीजिए — साधुजी आपके घर पधारेंगे।
• ₹5,00,000 दीजिए — आशीर्वाद के साथ आपकी प्रशंसा मंच से।
धर्म अब मोक्ष का मार्ग नहीं रहा, अब ये एक रेट कार्ड है।
और ये कोई मज़ाक नहीं है।
ये वो कड़वा सच है जिसे हमने देखना छोड़ दिया है।
या कहें — देख कर भी अनदेखा कर दिया है।
⸻
1. संयम का चोला, लेकिन भीतर राजसी ठाठ
एक दौर था जब साधु संत निर्वस्त्र होते थे — लेकिन फिर भी पूरे समाज को लज्जा सिखा जाते थे।
आज?
• चरण रक्षक गाड़ी से चलते हैं।
• हर दो कदम पर स्वागत मंडप लगता है।
• उनके साथ मीडिया टीम होती है जो वीडियो बनाती है।
• और अगर प्रवचन में भीड़ न हो, तो नाराज़गी दिखती है।
किससे पूछें — ये कौन-सा त्याग है?
क्या अब संयम का मूल्य भी ‘डेकोरेशन’ से तय होगा?
⸻
2. ट्रस्टियों की राजनीति — धर्म के नाम पर निजी एजेंडा
मंदिर कभी समुदाय के आत्मिक विकास के केंद्र थे।
अब वे कुछ खास लोगों के ‘क्लब’ बन गए हैं।
• ट्रस्टी कौन बनेगा, इसका फैसला अब सेवा से नहीं — गुटबाज़ी और चापलूसी से होता है।
• मंदिर की नीतियाँ ‘धार्मिक’ नहीं, ‘राजनीतिक’ हो गई हैं।
• मूर्ति प्रतिष्ठा हो या चातुर्मास — किसे बुलाया जाए, ये फैसला आम आदमी नहीं, कुछ गिने-चुने लोग करते हैं — वो भी “कमीशन” देखकर।
और अगर कोई सजग व्यक्ति सवाल पूछे, तो उसे समाज-विरोधी करार दे दिया जाता है।
क्या यही है हमारी धर्मरक्षा?
⸻
3. आयोजन या कारोबार?
अब हर धार्मिक आयोजन ‘इवेंट’ है।
• साउंड सिस्टम किसका होगा?
• फूल कौन देगा?
• प्रसाद किसकी केटरिंग से आएगा?
• भजन मंडली किस गायक की होगी?
इन सब में भी ‘डीलिंग’ होती है।
कई जगह तो यही देखा गया है कि मंच पर बैठने के लिए भी ‘चढ़ावे’ की सीमा तय है।
साधुजी की ‘आशंका’ पर कौन बोले?
जिस आयोजन का मकसद आत्मशुद्धि था, अब वह पूरा एक वाणिज्यिक शो बन चुका है।
⸻
4. साधुजी आएंगे — लेकिन रेट के साथ
आजकल यह भी चर्चा का विषय होता है कि किस साधुजी कहां रुकेंगे।
और ये निर्णय किस आधार पर होता है?
• कहाँ ज्यादा भव्य स्वागत मिलेगा।
• कहाँ ज्यादा दानदाताओं की भीड़ है।
• किस तीर्थ की कमेटी ज़्यादा खर्च कर सकती है।
• और किस जगह ‘राजनीतिक पकड़’ ज्यादा है।
त्याग की जगह अब “आकर्षण” ने ले ली है।
भक्ति की जगह अब “प्रायोजक” आ गए हैं।
और धर्म की जगह अब “डीलिंग” चल रही है।
⸻
5. समाज मौन क्यों है?
सब कुछ सामने है —
लेकिन हम सब मौन हैं।
क्यों?
• डरते हैं कि “संघ-विरोधी” कहे जाएंगे।
• सोचते हैं — “हम कौन होते हैं बोलने वाले?”
• कुछ तो इसलिए चुप हैं कि कहीं उनकी दुकान न बंद हो जाए।
पर क्या हम नहीं जानते कि —
चुप रहना भी एक प्रकार की सहमति है।
और हमारी यही चुप्पी इन “धर्म के दलालों” को और ताकत देती है।
⸻
अब भी समय है — चेत जाओ!
अब वक्त आ गया है:
• साधुओं से स्पष्ट सवाल पूछिए — तपस्या है या तमाशा?
• ट्रस्टियों से हिसाब मांगिए — मंदिर का पैसा कहां गया?
• समाज को जगाइए — धर्म रक्षा सिर्फ माला जपने से नहीं, हिम्मत दिखाने से होती है।
हमारे पूर्वजों ने धर्म को सिर्फ पूजा-पाठ में नहीं, आचरण में जिया था।
और हमने? उसे “इवेंट” बना डाला।
⸻
निष्कर्ष — धर्म बचाना है, तो खरीदी बंद करनी होगी
याद रखिए —
धर्म बिकने की चीज़ नहीं है।
अगर आप देख रहे हैं कि धर्म बिक रहा है — और आप फिर भी चुप हैं —
तो आप केवल दर्शक नहीं, भागीदार हैं।
आप मंदिर में जाएं, लेकिन आंखें खोलकर।
आप साधु के पास जाएं, लेकिन विवेक के साथ।
आप आयोजन करें, लेकिन बिना दिखावे के।
धर्म हमारी आत्मा की आवाज़ है —
उसे ध्वनि सिस्टम और बजट से मत दबाइए।
#धर्मबिकाऊहै #सच्चाईकीआवाज #आंखेंखोलो #धर्मकासौदा #आध्यात्मिकजागृति #मंदिरराजनीति #सच्चाधर्म #समाजकीआवाज #भक्तिनहींव्यापार #धर्मरक्षामेंविवेक #त्यागयातमाशा #धर्मकीहकीकत
#ReligionForSale #TruthOfFaith #WakeUpSociety #SpiritualAwakening #FaithVsBusiness #TemplePolitics #TrueSpirituality #VoiceOfTruth #StopFakeSaints #SaveRealDharma #ConsciousFaith
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी करें