बवासीर - कारण और निवारण
रोग की उत्पत्ति
अपान वायु के दुर्बल हो जाने से अनेक रोगों का जन्म होता है। बवासीर उनमें स एक है। वह मुख्य रूप से दो तरह की होती है। 1 खूनी तथा 2 बादी मस्से वाली। मलद्वार के आन्तरिक भाग में रक्तनलिकाओं और ज्ञान तन्तुओं का एक जाल-सा बिछा हुआ है जिनके द्वारा शरीर के इस भाग का नियन्त्र होता है और इसे पोषण मिलता है। रहन-सहन और खान-पान के गलत ढ़ग को अपनाने से बड़ी आंत में मल इकट्ठा होने लगता हैं। इससे गुदा की नसों में रक्त-संचार व प्राण प्रवाह ठीक प्रकार से नहीं होता और वे फूल जाती है। उनमें जलन और भीषण खाज होने लगती है और वे सूज जाती है। वहां की मांसपेशियां भी कमजोर पड़ जाती है। इसी अवस्था को बवासीर की संज्ञा दी जाती है। किंतु ज्यों-ज्यों कब्ज की वृद्धि होती है या वह रेचक दवाइयों का अधिक से अधिक प्रयोग करता है। ऐसा करने से बड़ी आंत और मलद्वार की श्लेष्मा क्षीण होती जाती है और आस-पास की उत्त्ोजित और फूली हुर्इ नसें और भी कमजोर पड़ जाती है। जब भी रागी मलत्याग के लिए जोर लगता है, यह भाग बाहर निकल आता है और इसे कठिनार्इ के साथ ही अंदर को धकेला जा सकता है। इन नसों फट जाने पर इनसे रक्त बहने लगता है, जिसे खूनी बवासीर कहते है।
खूनी बवासरी के लक्षण
1 गुदा-ग्रीवा की शिराओं का कोर्इ गुच्छा रक्त से भर जाना या सख्त हो जाना। 2 गुदा मार्ग में जनल, दर्द तथा खाज का होना। 3 शौच के समय दबाव पड़ने से रक्त का आना। 4 कभी मल से साथ लगकर खून आता है तो कभी बूंद-बूंद टपकता है। 5 गुदा के स्थान पर बोझ सा महसूस होता है। 6 रक्त एवं पीले रंग का पानी गुदा मार्ग से मस्सों के द्वारा निकलता रहता है। 7 गुदा की रक्त-वहिनियों एवं स्नायुओं में रक्त एवं प्राण की गति रूक जाने से गुदा द्वारा पर छोटे-बड़े दाने उभर आते है, जिन्हें मस्से कहते है।
बवासीर के कारण
1 आहार सम्बंधी गलतियां
कब्ज से स्थायी रूप धारण करने से ही बवासीर का रोग होता है। यही इसका जन्मदाता है।
आजकल खाद्य पदाथों को आकर्षक बनाने के लिए उनको साफ करने के बहाने उनके विटामिन और खनिज तत्वों का नष्ट कर दिया जाता है। ऐसे आहार स्वास्थ्य की दृष्टि से विषरूप हैं। इन्हीं के सेवन से नि:सन्देह कब्ज पैदा होती है। खान-पान से सम्बन्धित गलतियां निम्नलिखित हो सकती हैं-
1 बिना भूख के आहार करना, 2 बहुत अधिक मात्रा में भोजन करना, 3 बार-बार भोजन करना, 4 लाल मिर्च, मसालेदार व तली-भुनी गरिष्ठ वस्तुओं का सेवन करना, 5 प्रोटीन-प्रधान तथा चिकनार्इ -युक्त आहारों का अधिक मात्रा में सेवन करना तथा साग-सब्जियों और फलों का बहुत थोड़ी मात्रा में प्रयोग करना, 6 बेमेल खाद्य पदाथों का एक साथ सेवन करना, 7 जल्दी-जल्दी बिना चबाए भोजन करना, 8 अशान्त मन से भोजन करना तथा मांस, मदिरा, चाय, काफी आदि का निरंतर प्रयोग करना इत्यादि।
पौरूष ग्रंथि का बढ़ना, आंत तथा आमाशय आदि की विकृति के कारण से भी बवासीर का रोग होता है।
3 दवाइयों का प्रयोग:
दवाइयों के प्रयोग से पाचन-क्रिया में किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हो ता बल्कि पाचक अंगों का स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ जाता है। सभी दवाइयां कब्ज्ा को प्रोत्साहन देती हैं। उत्त्ोजक दवाइयां और मादक तत्वों से पाचन-क्रिया का नाश होता है। इनसे पाकस्थली की स्वाभाविक क्रिया मंद पड़ जाती है। अम्लनाशक कही जाने वाली दवादयां भी वास्तव में अम्लता को दूर नहीं करती बल्कि रोग को और भी जटिल रूप देती हैं।
उपचार
प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली के मूल सिद्धांतों को भली-भांति समझ लेने पर ही इन पर पूर्ण रूप से चला जा सकता है।
1 आहार-बवासीर के रोगी को पथ्याहारों को ही प्रयोग करना चाहिए। ऐसे आहार हैं-कच्ची साग-सब्जियां, जिनका प्रयोग यथासम्भव सलाद के रूप में ही करना चाहिए। फल भी पथ्याहार की श्रेणी में ही आते हैं। इन्हें आहार के रूप में दिन में दो बार सेवन करना चाहिए अथवा उनके रसों का थोड़ी-थोड़ी मात्रा में सेवन करन चाहिए। कच्ची साग-सब्जियां पालक और सलाद के हरे पत्त्ो का प्रयोग पानी में अच्छीे तरह धोने के पश्चात् सलाद के रूप में करें। कच्चा पपीता, तुरर्इ, शलजम, लौकी, जिमिकंद की सब्जी ठीक ढंग से पका कर खाएं। भूख न होने पर भोजन नहीं करना चाहिए। सप्ताह में एक बार उपवास करना भी उचित है। उपवास के दौरान, सब्जी का सूप या फलों का रस अथवा नारियल पानी का सेवन करें।
2 शुद्धि क्रिया- यौगिक एनिमा का प्रयोग बड़ा लाभकारी है। शुरू-2 में नियमित रूप से प्रतिदिन पाव-डेढ़ पाव ताजे पानी का एनिमा लें। बाद में भी आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग करना चाहिए।
कटि स्नान- रोगी प्रतिदिन नियमित रूप से ठण्डे जल के टब में लगभग 10 मिनट बैठें। इससे ज्ञान-तंतु एवं पेट के अन्य अवयव प्रभाव में आने से मलद्वार की नसों में रक्त का संचार उचित रूप में होगा। कभी-2 खून बहने के कारण नसों में घाव हो जाते है और बड़ा कष्ट अनुभव होता है। ऐसी अवस्था में रात्रि के समय सोने से पूर्व एक मोटे वस्त्र को पानी में भिगोकर और निचोड़कर गुदा पर लगाकर सो जाएं। इससे इसकी पीड़ा घट जाएगी।
3 खुली हवा- प्रात:काल ताजी हवा में हरी घास पर नंगे पांव घूमें और गहरी सांस लें। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन कुछ समय के लिए वायु स्नान करें।धूप स्नान-प्रतिदिन कुछ समय के लिए धूप-स्नान अवश्य करें।
4 योगासन- जानुशिरासन, पश्चिमोंत्तानासन, वज्रसान, सुप्त वजा्रसन, शशांकासन, हलासन, मत्स्यासन तथा शवासन का अभ्यास इस रोग को दूर करने में सहायक है।
5 प्राणायाम-गहरे-लम्बे श्वास, अग्निसार, भा्रमरी व नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास करें।
6 अश्विनी मुद्रा- दिन भर में जब भी इच्छा हो गुदा का बार-2 संकुचित व प्रसारित करते रहें।
7 मूल बंध- बाह्म कुंभक में मूलबंध लगाएं।
8 गणेश क्रिया- तर्जनी उंगली में सरसों का तेल लगाकर शौच के बाद मूलाधार गुदा के अंदर गहरार्इ में मालिश उंगली को गोलार्इ में घूमा-घूमाकर करें। यह बहुत आवश्यक है। नाखून से जख्म होने का भय रहता है अत: सावधानी पूर्वक करें।
अन्य सहायक क्रियाएं
अभ्यास 1- सीधे खड़े हो जायें। पैरों में कंधों जितना फासला कर लें। और मजबूती से दोनों कूल्हों पर रख लें। धड को पीछे की ओर जितना झुका सकें झुकाएं। इसी अवस्था में कुछ सैकिंड रहें। फिर साीधे खड़े हो जाएं। छह से आठ बार ऐसा करें।
अभ्यास 2- सीधे खड़े हो जाएं। पैरों में कंधों से अधिक फासला करें। दोनों बांहों को कंधों के स्तर तक दाएं-बाएं उंचा उठाएं। हथेलियां भूमि की दिशा में रहें। धड़ को टागों के मोड़े बिना कटि से दायीं ओर झुकाएं। दाएं हाथ को सीधा रखें और उससे पृथ्वी को यथा संभव छुने का प्रयत्न करें टांगे सीधी रहनी चाहिए। फिर सीधे खड़े हो जाएं। इसी प्रकार धड़ का बायीं ओर झुकाएं। यह अभ्यास छह से आठ बार करे।
अभ्यास 3-पैर की अंगुलियों के सहारे उन पर खड़े हो जाएं पेट को अंदर की ओर खीचें। इसी अवस्था में कुछ सैकिंड तक खड़े रहें। फिर दोनों पैरो का पृथ्वी पर रख लें। इस प्रकार दो-चार बार करें।
उच्च रक्तचाप वाले व्यक्ति को यदि बवासीर भी हो तो उसे खूनी बवासरी होने की संभावना बनी रहती है और ऐसी अवस्था में रक्त का बहाव भी अधिक हो जाता है।
नोट- रोगी को यह सलाह दी जाती है कि वह भारतीय योग संस्थान के किसी ऐसे केंद्र पर जाकर नियमित साधना करे जो उस के घर के नजदीक हो।
रोग की उत्पत्ति
अपान वायु के दुर्बल हो जाने से अनेक रोगों का जन्म होता है। बवासीर उनमें स एक है। वह मुख्य रूप से दो तरह की होती है। 1 खूनी तथा 2 बादी मस्से वाली। मलद्वार के आन्तरिक भाग में रक्तनलिकाओं और ज्ञान तन्तुओं का एक जाल-सा बिछा हुआ है जिनके द्वारा शरीर के इस भाग का नियन्त्र होता है और इसे पोषण मिलता है। रहन-सहन और खान-पान के गलत ढ़ग को अपनाने से बड़ी आंत में मल इकट्ठा होने लगता हैं। इससे गुदा की नसों में रक्त-संचार व प्राण प्रवाह ठीक प्रकार से नहीं होता और वे फूल जाती है। उनमें जलन और भीषण खाज होने लगती है और वे सूज जाती है। वहां की मांसपेशियां भी कमजोर पड़ जाती है। इसी अवस्था को बवासीर की संज्ञा दी जाती है। किंतु ज्यों-ज्यों कब्ज की वृद्धि होती है या वह रेचक दवाइयों का अधिक से अधिक प्रयोग करता है। ऐसा करने से बड़ी आंत और मलद्वार की श्लेष्मा क्षीण होती जाती है और आस-पास की उत्त्ोजित और फूली हुर्इ नसें और भी कमजोर पड़ जाती है। जब भी रागी मलत्याग के लिए जोर लगता है, यह भाग बाहर निकल आता है और इसे कठिनार्इ के साथ ही अंदर को धकेला जा सकता है। इन नसों फट जाने पर इनसे रक्त बहने लगता है, जिसे खूनी बवासीर कहते है।
खूनी बवासरी के लक्षण
1 गुदा-ग्रीवा की शिराओं का कोर्इ गुच्छा रक्त से भर जाना या सख्त हो जाना। 2 गुदा मार्ग में जनल, दर्द तथा खाज का होना। 3 शौच के समय दबाव पड़ने से रक्त का आना। 4 कभी मल से साथ लगकर खून आता है तो कभी बूंद-बूंद टपकता है। 5 गुदा के स्थान पर बोझ सा महसूस होता है। 6 रक्त एवं पीले रंग का पानी गुदा मार्ग से मस्सों के द्वारा निकलता रहता है। 7 गुदा की रक्त-वहिनियों एवं स्नायुओं में रक्त एवं प्राण की गति रूक जाने से गुदा द्वारा पर छोटे-बड़े दाने उभर आते है, जिन्हें मस्से कहते है।
बवासीर के कारण
1 आहार सम्बंधी गलतियां
कब्ज से स्थायी रूप धारण करने से ही बवासीर का रोग होता है। यही इसका जन्मदाता है।
आजकल खाद्य पदाथों को आकर्षक बनाने के लिए उनको साफ करने के बहाने उनके विटामिन और खनिज तत्वों का नष्ट कर दिया जाता है। ऐसे आहार स्वास्थ्य की दृष्टि से विषरूप हैं। इन्हीं के सेवन से नि:सन्देह कब्ज पैदा होती है। खान-पान से सम्बन्धित गलतियां निम्नलिखित हो सकती हैं-
1 बिना भूख के आहार करना, 2 बहुत अधिक मात्रा में भोजन करना, 3 बार-बार भोजन करना, 4 लाल मिर्च, मसालेदार व तली-भुनी गरिष्ठ वस्तुओं का सेवन करना, 5 प्रोटीन-प्रधान तथा चिकनार्इ -युक्त आहारों का अधिक मात्रा में सेवन करना तथा साग-सब्जियों और फलों का बहुत थोड़ी मात्रा में प्रयोग करना, 6 बेमेल खाद्य पदाथों का एक साथ सेवन करना, 7 जल्दी-जल्दी बिना चबाए भोजन करना, 8 अशान्त मन से भोजन करना तथा मांस, मदिरा, चाय, काफी आदि का निरंतर प्रयोग करना इत्यादि।
पौरूष ग्रंथि का बढ़ना, आंत तथा आमाशय आदि की विकृति के कारण से भी बवासीर का रोग होता है।
3 दवाइयों का प्रयोग:
दवाइयों के प्रयोग से पाचन-क्रिया में किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हो ता बल्कि पाचक अंगों का स्वास्थ्य और भी अधिक बिगड़ जाता है। सभी दवाइयां कब्ज्ा को प्रोत्साहन देती हैं। उत्त्ोजक दवाइयां और मादक तत्वों से पाचन-क्रिया का नाश होता है। इनसे पाकस्थली की स्वाभाविक क्रिया मंद पड़ जाती है। अम्लनाशक कही जाने वाली दवादयां भी वास्तव में अम्लता को दूर नहीं करती बल्कि रोग को और भी जटिल रूप देती हैं।
उपचार
प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली के मूल सिद्धांतों को भली-भांति समझ लेने पर ही इन पर पूर्ण रूप से चला जा सकता है।
1 आहार-बवासीर के रोगी को पथ्याहारों को ही प्रयोग करना चाहिए। ऐसे आहार हैं-कच्ची साग-सब्जियां, जिनका प्रयोग यथासम्भव सलाद के रूप में ही करना चाहिए। फल भी पथ्याहार की श्रेणी में ही आते हैं। इन्हें आहार के रूप में दिन में दो बार सेवन करना चाहिए अथवा उनके रसों का थोड़ी-थोड़ी मात्रा में सेवन करन चाहिए। कच्ची साग-सब्जियां पालक और सलाद के हरे पत्त्ो का प्रयोग पानी में अच्छीे तरह धोने के पश्चात् सलाद के रूप में करें। कच्चा पपीता, तुरर्इ, शलजम, लौकी, जिमिकंद की सब्जी ठीक ढंग से पका कर खाएं। भूख न होने पर भोजन नहीं करना चाहिए। सप्ताह में एक बार उपवास करना भी उचित है। उपवास के दौरान, सब्जी का सूप या फलों का रस अथवा नारियल पानी का सेवन करें।
2 शुद्धि क्रिया- यौगिक एनिमा का प्रयोग बड़ा लाभकारी है। शुरू-2 में नियमित रूप से प्रतिदिन पाव-डेढ़ पाव ताजे पानी का एनिमा लें। बाद में भी आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग करना चाहिए।
कटि स्नान- रोगी प्रतिदिन नियमित रूप से ठण्डे जल के टब में लगभग 10 मिनट बैठें। इससे ज्ञान-तंतु एवं पेट के अन्य अवयव प्रभाव में आने से मलद्वार की नसों में रक्त का संचार उचित रूप में होगा। कभी-2 खून बहने के कारण नसों में घाव हो जाते है और बड़ा कष्ट अनुभव होता है। ऐसी अवस्था में रात्रि के समय सोने से पूर्व एक मोटे वस्त्र को पानी में भिगोकर और निचोड़कर गुदा पर लगाकर सो जाएं। इससे इसकी पीड़ा घट जाएगी।
3 खुली हवा- प्रात:काल ताजी हवा में हरी घास पर नंगे पांव घूमें और गहरी सांस लें। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन कुछ समय के लिए वायु स्नान करें।धूप स्नान-प्रतिदिन कुछ समय के लिए धूप-स्नान अवश्य करें।
4 योगासन- जानुशिरासन, पश्चिमोंत्तानासन, वज्रसान, सुप्त वजा्रसन, शशांकासन, हलासन, मत्स्यासन तथा शवासन का अभ्यास इस रोग को दूर करने में सहायक है।
5 प्राणायाम-गहरे-लम्बे श्वास, अग्निसार, भा्रमरी व नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास करें।
6 अश्विनी मुद्रा- दिन भर में जब भी इच्छा हो गुदा का बार-2 संकुचित व प्रसारित करते रहें।
7 मूल बंध- बाह्म कुंभक में मूलबंध लगाएं।
8 गणेश क्रिया- तर्जनी उंगली में सरसों का तेल लगाकर शौच के बाद मूलाधार गुदा के अंदर गहरार्इ में मालिश उंगली को गोलार्इ में घूमा-घूमाकर करें। यह बहुत आवश्यक है। नाखून से जख्म होने का भय रहता है अत: सावधानी पूर्वक करें।
अन्य सहायक क्रियाएं
अभ्यास 1- सीधे खड़े हो जायें। पैरों में कंधों जितना फासला कर लें। और मजबूती से दोनों कूल्हों पर रख लें। धड को पीछे की ओर जितना झुका सकें झुकाएं। इसी अवस्था में कुछ सैकिंड रहें। फिर साीधे खड़े हो जाएं। छह से आठ बार ऐसा करें।
अभ्यास 2- सीधे खड़े हो जाएं। पैरों में कंधों से अधिक फासला करें। दोनों बांहों को कंधों के स्तर तक दाएं-बाएं उंचा उठाएं। हथेलियां भूमि की दिशा में रहें। धड़ को टागों के मोड़े बिना कटि से दायीं ओर झुकाएं। दाएं हाथ को सीधा रखें और उससे पृथ्वी को यथा संभव छुने का प्रयत्न करें टांगे सीधी रहनी चाहिए। फिर सीधे खड़े हो जाएं। इसी प्रकार धड़ का बायीं ओर झुकाएं। यह अभ्यास छह से आठ बार करे।
अभ्यास 3-पैर की अंगुलियों के सहारे उन पर खड़े हो जाएं पेट को अंदर की ओर खीचें। इसी अवस्था में कुछ सैकिंड तक खड़े रहें। फिर दोनों पैरो का पृथ्वी पर रख लें। इस प्रकार दो-चार बार करें।
उच्च रक्तचाप वाले व्यक्ति को यदि बवासीर भी हो तो उसे खूनी बवासरी होने की संभावना बनी रहती है और ऐसी अवस्था में रक्त का बहाव भी अधिक हो जाता है।
नोट- रोगी को यह सलाह दी जाती है कि वह भारतीय योग संस्थान के किसी ऐसे केंद्र पर जाकर नियमित साधना करे जो उस के घर के नजदीक हो।
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