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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

#शास्त्रों* में मिलावट या दूषण क्रिया

*#शास्त्रों* में मिलावट या दूषण क्रिया।
यह निश्चित है कि यदि संस्कृत का अध्ययन और व्याकरण का अभ्यास नहीं किया गया तो वेद-पुराण-शास्त्र आदि का मूल रूप लुप्त हो जायेगा और म्लेच्छ लोग कुतर्कों से श्रद्धावान जन को मानसिक तथा शारीरिक रूप से सर्वथा पतन के गर्भ में झोंक देगें।
यद्यपि मैंने पहले भी यह बात बतायी है. और विविध अवसरों पर इनका उल्लेख भी किया है. मैं पुनः एक उदाहरण वायुपुराण से दे रहा हूँ. वायुपुराण के द्वितीय अध्याय "द्वादशवार्षिकसत्र निरूपण" में बताया गया है कि ---
*#उर्वशी चकमे यं च देवहूतिप्रणोदिता।*
आजहार च तत्सत्रं स्व *#र्वेश्यासहसंगतः।---16.*
इस श्लोक में उर्वशी को स्पष्ट शब्दों में *#वैश्या* कहा गया है. यही नहीं माता देवहूति ने प्रेरित कर उसका विवाह भी राजा पुरुरवा से करवा दिया। यह सर्व विदित है कि उर्वशी, रम्भा, मेनका, तिलोत्तमा आदि स्वर्ग की अप्शरायें थीं. तथा विविध दैवी कार्यक्रमों में अपना शास्त्रीय नृत्य प्रस्तुत कर स्वरबोध कराती थीं. उन्होंने सदा अपने गर्भ से विभूतियों को ही जन्म दिया है. मेनका-दुष्यंत के पुत्र भरत इसका बहुप्रचलित उदाहरण है. उर्वशी ने विदम्भ, रम्भा ने कृतिवर्ह और तिलोत्तमा ने अजवाह नामक देवअंशी ऋषियों को अपने गर्भ से जन्म दिया। और उसे वैश्या कहा गया है. यही नहीं विवाह की प्रेरणा भी देवहूति द्वारा दी गयी.
क्या कोई एक ऐसा उदाहरण है जिसमें यह बताया गया हो कि कोई भी अप्सरा स्वयं या कामपीड़ित होकर किसी राजा का वरण किया हो?
जब भी इनका सम्बन्ध किसी सांसारिक मनुष्य से हुआ है तो इसके पीछे उस सांसारिक मनुष्य का ही हाथ, भय या दण्ड रहा है. किसी अप्सरा का नहीं। फिर किस आधार पर इन्हें वैश्या शब्द से सम्बोधित किया गया है?
यही नहीं, इसके आगे वाला श्लोक देखें-         
*#तस्मिन्नरपतौ* सत्रं नैमिषेयाः प्रचक्रिरे।
यं गर्भे सुषुवे गङ्गा पावकाद्दीप्ततेजसम।----17
अर्थात सर्वप्रथम तो यह कि देवमाता ने जानबूझकर उर्वसी से व्यभिचार करवाया। क्योंकि वेश्या से व्यभिचार ही अपेक्षित है. उसके बाद देवमाता की यही आकांक्षा थी कि नैमिष ऋषियों का द्वादश वर्षीय सत्र भङ्ग हो जाय. सोचने की बात है, ऋषिपत्नी देवहूति ने अत्यंत पवित्र कार्य द्वादश वर्षीय सत्र को भङ्ग करना चाहा, सहारा किसका लिया--एक वेश्या (????) का, दूषित किसे किया- एक नृपति को.
इसके बाद श्लोक की अगली पंक्ति देखें। उसमें बताया गया है कि पावक अर्थात अग्नि के उद्दीप्त तेज से गङ्गा ने गर्भ धारण किया। और गर्भ के उस भ्रूण-उल्व को पर्वत पर रख दिया गया जो स्वर्ण बन गया.
---तदुल्वं पर्वते न्यस्तँ हिरण्यं प्रत्यपद्यत।
हिरण्मयं ततश्चक्रे यज्ञवाटं महात्मनाम।     
स्वयं देखें, इस श्लोक का इसके आगे या पीछे के श्लोक या प्रसङ्ग से कोई सम्बन्ध नहीं है. क्योंकि पहले कहा गया है कि देवहूति ने पुरुरवा का व्याह वेश्या उर्वसी के साथ हुआ. चलिये यह तो प्रसङ्ग चल ही रहा है. फिर यह गङ्गा के गर्भ धारण, तथा उसके उल्व को पर्वत पर रख देने का क्या तात्पर्य? इसका इस कथन से या प्रसङ्ग से क्या लेना लेना देना? क्योंकि आगे की कथा पुनः पुरुरवा और उर्वसी के सम्बन्ध से उत्पन्न संतान पर आ जाती है. और इनकी यही संतान नहुष के महात्मा पिता के रूप में प्रसिद्ध हुई.
ध्यान दें, यहां पर भी संतान महात्मा हुई. फिर भी उर्वसी को वेश्या सम्बोधन मिला है.
पुनः यहां गङ्गा को भी अपमानजनक स्थिति के द्वारा प्रदर्शित किया गया है. वह भी बिना किसी प्रयोजन के. जिसका इस कथा से कोई सम्बन्ध नहीं बनता है. इस प्रकार विविध प्रक्षिप्त कथन इन पवित्र कथाओं को दूषित और हेय बनाते हैं.
अल्पज्ञता, स्वार्थपरता या पापपूर्ण लोभ और छद्मपांडित्य के कारण पुराणों को न समझ सकने से ये विद्वान विद्वान के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने वाले विश्लेषक, व्याख्याकार आदि ने इन पुराणों का बहुत अपमान किया है.
उदाहरण---
कोई भी व्यक्ति अपनी संतान को लक्ष्मी सदृश गुणों के कारण उसका नाम लक्ष्मी रख देता है. वैसे तो आजकल प्रत्येक व्यक्ति कुछ और ही कर रहा है. जैसे अपनी काणी या भैंगी लड़की का नाम *#सुलोचना* रख दे रहा है. या अपने कुबड़े या काले कलूटे पुत्र का नाम भी #रुपेश रख दे रहा है. किन्तु पुराणकालीन नाम ऐसे नहीं होते थे. जैसा गुण होता था वैसा ही नाम रखा जाता था. जैसे--
*#विश्व भरण पोषण कर जोई.*
ताकर नाम भरत अस होई.
जेहि सुमिरत हो शत्रु विनाशा।
नाम शत्रुहन वेद प्रकाशा।----रामचरितमानस
अर्थात जो विश्व के भरण पोषण की शक्ति एवं इच्छा से भरा हो ऐसे इस बालक का नाम भरत विख्यात होगा। जिसके नाम स्मरण मात्र से शत्रुओं का विनाश हो जाय, ऐसे इस बालक का नाम शत्रुघ्न प्रसिद्ध होगा।
अब सम्बंधित प्रसङ्ग पर आते हैं. उर्वसी को उपर्युक्त कथा में वेश्या कहा गया है. जबकि इसका नामकरण वैदिक ऋचाओं के आधार पर है--
*#त्वमग्ने प्रथमं आयुं आयवे देवाः अकृण्वन।---ऋग्वेद 1/31/11*
अर्थात हे अग्नि पहले तुमने आयु को बनाया और उसके बाद अन्य देवताओं को.
ऊपर के वायुपुराण के कथन में यह बताया गया है कि नहुष के पिता एवं पुरुरवा-उर्वसी से उत्पन्न संतान का नाम आयु था. अर्थात नहुष पुरुरवा के पौत्र थे.
उर्वसी--और्वं सह ईक्षते (तत्प्रत्ययान्ते पदकृतं ईकारान्त) अर्थात सूर्य
पुरुरवा- पुरो वहति उत्सर्जति वा. अर्थात सूर्य के आगे आगे जो प्रवाहित होती है--किरण-रश्मि।
इन गुणों से संपन्न होने के कारण इस स्वर्ग की अप्सरा को उर्वसी जो सूर्य के सदृश थी, तथा पुरुरवा जो रश्मि की भाँती थे, नामकरण हुआ.
इसके उपरान्त भी पुरुरवा को व्यभिचारी-विलासी एवं परदारारत तथा उर्वसी को वैश्या बताया गया है.
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अतः आज उपलब्ध पुराण-शास्त्र आदि अपना मूल रूप खो चुके हैं.  
वेदव्यास द्वारा सम्पादित पुराण की कथाओं का प्रचार तात्कालिक सूतों द्वारा हुआ. सूत एक जाति या सम्प्रदाय था. जो वंश परम्परा के अनुसार घूम घूम कर कथाओं के द्वारा समाज का संशोधन एवं मनोरंजन करता था. विभिन्न सूतों के मुख से उद्गीर्ण पौराणिक कथाओं में कालक्रमानुसार पाठान्तर एवं प्रक्षेप का होना स्वतः सिद्ध है. कालान्तर में स्वार्थ निरत व्यासों और सूतों ने अपनी अपनी मान्यता का समावेश किया। धीरे धीरे पुराण तिल के ताड़ बनाये गये. उनकी शाखायें-प्रशाखायें उत्पन्न हुईं। साम्प्रदायिक घृणा और द्वेष की प्रवृत्तियाँ समाविष्ट हुईं। पाठान्तर और प्रेक्षप निरंतर बढ़ते गये. फिर भी अभ्यासी, चैतन्य, अध्येता एवं वेदपाठी कुशल आचार्यों ने इसकी मौलिकता बनाये रखी. जिससे यह नष्ट तो न हो पाया है और न होगा। किन्तु इसे वही जान सकता है जो भाषा विज्ञान, छंद, लय, यति तथा शब्द संहिता आदि का ज्ञान रखता हो. अन्यथा दुसरे लोग तो दूषित, अशुद्ध एवं भ्रामक पुराण आदि ही पढ़ेगें और उनका अनुकरण करेगें। जैसा आजकल लोग कर रहे हैं. आजकल तो *#नेटपुराण और #नेटकर्मकाण्ड* का बोलबाला है.
मातारानी रक्षा करें।

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