हर पुराण तथा वेद में कई स्थानों पर न केवल पृथ्वी बल्कि सभी ग्रह, तारा तथा ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) को भी गोल लिखा हुआ है।
सृष्टि वर्णन में पृथ्वी वर्णन भूगोल तथा आकाश का वर्णन भूगोल या खगोल लिखा है।
वेद में सभी को मण्डल लिखा है।
पृथ्वी गोल होने के कारण हर स्थान पर अलग अलग समय सूर्योदय या सूर्यास्त होते हैं – यह उल्लेख भी सैकड़ों स्थानों पर है।
मान्धाता का राज्य पूरे विश्व में फैला था जिनके बारे में यह उक्ति सभी पुराणों में है कि उनके राज्य में हर समय कहीं सूर्योदय, कहीं सूर्यास्त होता रहता था।
इन्द्र की अमरावती पुरी में जब सूर्योदय होता था, उस समय यम की संयमनी पुरी में अर्ध रात्रि, वरुण की सुखा नगरी में मध्याह्न तथा सोम की विभावरी पुरी में सूर्यास्त होता था।
पुराणों में दो प्रकार के द्वीपों का वर्णन है-एक पृथ्वी के महादेश तथा दूसरे सूर्य के चारों तरफ ग्रहों की परिक्रमा से बने हुये क्षेत्र। ये ही वलयाकार या वृत्ताकार हैं (पृथ्वी से देखने पर)। पृथ्वी के व्यास को १००० योजन माना गया है (प्रायः १२.८ किमी. का १ योजन), अतः आकाश में पृथ्वी सहस्र-दल पद्म या सहस्रपाद है। ३ प्रकार की पृथ्वी है और सबमें द्वीपों, पर्वतों नदियों के नाम उसी प्रकार हैं जैसे पृथ्वी ग्रह पर हैं। ३ पृथ्वी हैं-सूर्य-चन्द्र दोनों से प्रकाशित पृथ्वी ग्रह, सूर्य का प्रकाश क्षेत्र (३० धाम तक (ऋक् १०/१९८/३), सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा जहां वह विन्दु मात्र दीखता है (सूर्य सिद्धान्त १२/८२, ऋक् १/२२/२०-विष्णु सूर्य का परमपद)। हर पृथ्वी की तुलना में उसका आकाश उतना ही बड़ा है, जितना मनुष्य की तुलना में पृथ्वी ग्रह।रविचन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते। स समुद्रसरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता॥३॥ यावत् प्रमाणा पृथिवी विस्तारपरिमण्डला। नभस्तावत् प्रमाणं वै व्यासमण्डलतो द्विज॥४॥ (विष्णु पुराण, २/७)
स्पष्टतः १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर १६ करोड़ योजन पुष्कर द्वीप नहीं हो सकता है। पृथ्वी के द्वीपों का अनियमित आकार है, वृत्ताकार नहीं है।
कई लोग अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि को छोड़ कर पृथ्वी के ७ द्वीपों का वर्णन करते हैं। किन्तु तुर्की की नौसेना के पास एक पुराना नक्शा था जिसमें अण्टार्कटिका के २ स्थल भाग तथा दोनों अमेरिका का नक्शा था। यह नौसेना प्रमुख ने नाम पर पिरी रीस नक्शा कहा जाता है। इसी के आधार पर कोलम्बस ने अमेरिका यात्रा की योजना बनाई थी। यदि अमेरिका नहीं होता तो उसे योजना की तुलना में भारत पहुंचने के लिये १०-१२ गुणा अधिक जाना पड़ता।
एसिया जम्बू द्वीप, अफ्रीका कुश द्वीप, यूरोप प्लक्ष, उत्तर अमेरिका क्रौञ्च, दक्षिण अमेरिका पुष्कर तथा आस्ट्रेलिया शक (या अग्नि कोण में अग्नि या अंग द्वीप) था। आठवां अण्टार्कटिका अनन्त या यम (जोड़ा) द्वीप था।
नक्शा बनाने के लिये उत्तर और दक्षिण गोलार्धों को ४-४ भाग में नक्शा बनता था, जिनको भू-पद्म का ४ दल कहा गया है। उत्तर भाग के ४ नक्शे ४ रंग में बनते थे जिनको मेरु के ४ पार्श्वों का रंग कहा है। उज्जैन के दोनों तरफ (पृर्व से पश्चिम) ४५-४५ अंश भारत दल है। विषुव से ध्रुव तक आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोकों का विभाजन है-विन्ध्य तक भू, हिमालय तक भुवः, हिमालय स्वर्ग (त्रिविष्टप्), चीन महः (महान् से हान् जाति), मंगोलिया जनः, साइबेरिया तपस् (स्टेपीज), ध्रुव वृत्त सत्य लोक हैं। भारत के पश्चिम केतुमाल, पूर्व में भद्राश्व, तथा विपरीत दिशा में कुरु दल हैं।
उत्तर के अन्य ३ दल को ३ तल कहते हैं। भारत के पश्चिम अतल (उसके बाद का समुद्र अतलान्तक), पूर्व में सुतल, उससे पूर्व पाताल हैं। भारत के दक्षिण तल या महातल (दोनों को कुमारिका खण्ड कहते थे, आज भी उसे भारत महासागर कहते हैं), अतल के दक्षिण तलातल, पाताल के दक्षिण रसातल, तथा सुतल के दक्षिण वितल हैं। गोल पृथ्वी का समतल नक्शा बनाने पर ध्रुव प्रदेश में अनन्त माप हो जाती है। उत्तरी ध्रुव जल में होने के कारण (आर्यभट) वहां कोई समस्या नहीं है, पर दक्षिणी ध्रुव स्थल पर है, जिसका अलग से नक्शा बनाना पड़ता है। अनन्त माप होने के कारण यह अनन्त द्वीप है।
स्वायम्भुव मनु के समय के ४ नगर परस्पर ९० अंश पर थे-इन्द्र का अमरावती (भारत का पूर्वी नगर, किष्किन्धा काण्ड के अनुसार ७ द्वीपों वाले यव द्वीप का पूर्व भाग), पश्चिम में यम की संयमनी (यमन, अम्मान, सना आदि), पूर्व में वरुण की सुखा, विपरीत दिशा में सोम की विभावरी।
वैवस्वत मनु के समय से अन्य ४ सन्दर्भ नगर हुये-लंका या उज्जैन, पूर्व में यमकोटिपत्तन (यम द्वीप अण्टार्कटिका जैसा जोडा द्वीप न्यूजीलैण्ड के दक्षिण पश्चिम, पश्चिम में रोमकपत्तन (मोरक्को के पश्चिम समुद्र तट पर), विपरीत में सिद्धपुर।
उज्जैन या लंका से ६-६ अंशके अन्तर पर ६० कालक्षेत्र थे जो सूर्य क्षेत्र, लंका या मेरु कहे जाते हैं। लंका का समय पृथ्वी का समय था अतः उसके राजा को कुबेर कहते थे (कु = पृथ्वी, बेर = समय) उसी देशान्तर पर उज्जैन में महाकाल हैं। इसके पूर्व पहला कालक्षेत्र पर कालहस्ती है। उसी रेखा पर चिदम्बरम्, केदारनाथ आदि हैं। इससे ठीक १८० अंश पूर्व मेक्सिको का सूर्य पिरामिड है। किष्किन्धाकाण्ड (४०/५४, ६४) के अनुसार पूर्व के अन्त का चिह्न देने के लिये वहां ब्रह्मा ने द्वार बनाया था। उज्जैन से ४२ अंश पूर्व क्योटो (जापान की पुरानी राजधानी), ४२ अंश पश्चिम हेलेस्पौण्ट, ७२ अंश पश्चिम लोर्डेस (फ्रांस पूर्व सीमा), ७८ अंश पश्चिम स्टोनहेन्ज (लंकाशायर) आदि हैं।
✍🏻अरुण उपाध्याय
गरुड़ पुराण पर डॉ श्रीकृष्ण जुगनू जी का दृष्टिकोण -
एक विश्वकोशात्मक पुराण का प्रकाशन
भारतीय महापुराणों में गरुडपुराण का स्वरूप उसके विश्वकोशीय रूप के कारण सबसे ज्यादा सम्मान के योग्य है। पुराणों में अग्निपुराण, वह्निपुराण, नारदपुराण और विष्णुधर्मोत्तर पुराण ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन-अनुशीलन के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं किंतु इस अध्ययन की पूर्णता तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि गरुडपुराण का अध्ययन न हो जाता। इन पुराणों में धार्मिक कहानियों से ज्यादा जीवनोपयोगी विषयों का समावेश है।
यों तो प्राचीन पुराणों में विष्णुपुराण में आई सूची में 'गरुडपुराण' का नाम भी आता है किंतु उस समय इसका स्वरूप क्या रहा होगा, कहना कठिन है तथापि 9-10वीं प्रतिहारों, परमारों के काल तक गरुड को राजचिन्ह के रूप में स्वीकारा जा चुका था, तब तक इस पुराण का वर्तमान संस्करण जरूर तैयार हो गया होगा। पुराण के पूर्वार्द्ध में इस काल की घटनाओं के कई संदर्भ खोजे जा सकते हैं किंतु इसमें बहुत सी सामग्री पुरानी है और अन्य पुराणों में नहीं मिलती। इसमें मुख्य है- रत्नशास्त्र।
- बुधगुप्त ने जिस रत्नपरीक्षा शास्त्र का प्रणयन किया, वह इस पुराण में यथारूप उपलब्ध है। इसी विषय को बाद में वराहमिहिर आदि अनेक रत्नशास्त्रियों ने अपने ढंग से लिखा।
- 'बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र' जिसके बारे में हमें बहुत कम ही जानकारी है, इस पुराण में संक्षिप्त रूप से मिलता है।
- पाराशर स्मृति और गीता के सार हैं तो याज्ञवल्क्य स्मृति का सारांश भी ज्ञेय है।
- स्मृतियों के सारांश में वह 'विनायक शांति' भी है जिसके करने से तब कन्याओं के लिए वर खोजने का मार्ग प्रशस्त हो जाता था।
- कुमार व्याकरण का अलभ्य पाठ इसमें बचा हुआ है।
- पुराण का सर्वाधिक महत्व इसकी आयुर्वेद विषयक सामग्री है। पुराण का लगभग आधा हिस्सा धन्वन्तरि प्रोक्त है और इसमें जीवनचर्या के साथ-साथ आयुर्वेद, औषधियों, कल्क, काढ़ा आदि के निर्माण की वे विधियां हैं जिनके लिए हमें अलग से वाग्भट्ट, चरक, सुश्रुत आदि ग्रंथ देखने पड़ते है किंतु पुराण में बहुत उपयोगी रूप में संक्षिप्तीकरण किया गया है। गाय, अश्व, हाथी आदि की बीमारियों के उपचार की विधियां भी हैं जैसी कि अग्नि व विष्णु धर्मोत्तर में भी मिलती है।
कहना न होगा कि यह पुराण भारतीय समाज और संस्कृति के परिचय के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक महत्व का तो है ही आयुर्वेदिक दृष्टि से भी अति महत्व का है। उत्तरार्ध का प्रेतकल्प उसके मूल स्वरूप को ही अलग कर देता है। दरअसल इसकी महत्ता इस अर्थ में स्वीकारी जा सकती है कि यह मृत्याेपरांत नहीं, मृत्यपूर्व पठनीय ग्रंथ है। यह स्वयं सिद्ध करता है कि इस पुराण का स्वरूप विश्वकोशात्मक है और आचारखंड का एक-एक विषय उपयोगी है। हालांकि पुराण के उत्तरार्द्ध में प्रेतकल्प और ब्रह्मकांड हैं। इस तरह इस पुराण के विकास के तीन सोपान हैं। इसका परवर्ती स्वरूप पांचरात्रादि अनेक ग्रंथों के आधार पर दिखाई देता है मगर, ज्यादा क्या कहें, पढ़ना ही ठीक होगा। चौखंबा के आदेश पर मैंने तो इसकी विस्तार से भूमिका और परिशिष्ट में अपनी बात कहने का प्रयास किया है ही।
भारतीय परम्परा में गरुड़ का महत्व भगवान् विष्णु के वाहन के रूप में है। महाभारत में गरुड की कथाओं काे प्रमुखता से लिखा गया है किंतु गरुड़ का प्रसार विश्वव्यापी रहा है। भारत में गरुड़तंत्र और गरुडविद्या सहित गरुडास्त्र, गरुडव्यूह आदि की मान्यताओं का प्रसार नया नहीं है। यदि शिव के वाहन नंदी पर नंदिकेश्वर, नांदीपुराण रचे गए तो विष्ण्ाु वाहन गरुड पर भी स्वत्रंत पुराण का प्रणयन हुआ। वासुकी पुराण भी मिलता है।
गरुड़ मिथकीय रूप से चलकर एक पात्र और फिर वाहन के रूप में भारतीय आस्थाओं के साथ हेलियोडोरस के उस प्रयास के रूप में दिखाई देते हैं जो इस यवनदूत ने विदिशा में किया था। बात पहली सदी ईसापूर्व की है। उसने गरुडध्वज का निर्माण करवाया जिसके शीर्ष पर गरुड़ को विराजित किया, ऐसा माना जाता है। दरअसल गरुडध्वज विष्णु का पर्याय है। पुराणों में वराहध्वज स्तंभ का विवरण तो है मगर गरुड़ध्वज स्तंभ का नहीं। गरुड और नाग के वैर के संबंध में कहने की जरूरत नहीं, विष्णु शेषनागशायी है। गरुड़ को ऐसे विष्णु का सामीप्य कैसे मिला।
यदि गरुडपुराण के तीसर खंड ब्रह्मकांड में शेष के अवतार के प्रसंग को पढ़ें तो यह विदित होता है कि गरुड़ ने शेषशायी विष्णु के सान्निध्य में रहना स्वीकार किया था किंतु पक्षीराज गरुड का कोई अवतार नहीं हुआ, क्योंकि ऐसी नारायण की आज्ञा है। गरुड़ के प्रश्नों के रूप में पुराण का न केवल प्रणयन हुआ बल्कि एक विश्वकोष ही तैयार हो गया जिसमें आख्यान और उसका विस्तार, व्यथा और उसका आयुर्वेदिक उपचार, व्याकरण, छंद आदि अध्ययन और अध्ययन के विषय, राजनीति और बार्हस्पत्य नीतिसार, स्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति का सार, जीविकोपार्जन के लिए रत्न व्यापार और परीक्षार्थ रत्नशास्त्र जैसे अनेक उपयोगी विषय इस पुराण में हैं...।
यदि पांचरात्र परंपराओं की मानें तो विष्णु मंदिरों पर गरुडांकित पताका फहराने की बहुत लंबी-चौड़ी परंपराएं लिखी गई हैं। नारदीय संहिता, विष्णु संहिता, नारद पांचरात्र, प्रश्न संहिता, वैखानसागम, परमेश्वरसंहिता आदि में आई ऐसी परंपराओं की पुष्टि यामुनाचार्य ने 'आगम प्रामाण्य' में भी की है। गारू ड विद्या और उसकी सामाजिक उपयोगिता का जिक्र अबुल फजल ने आईन ए अकबरी में किया है।
इसी तरह गरुड की यात्राओं का वैश्विक परिदृश्य समझा जा सकता है क्योंकि अनेक सभ्यताओं में पक्षीराज कहीं ईगल है तो कहीं गरुड़, श्येन, पक्षीराजेंद्र, तार्क्ष, वींद्रा... नामों से स्मृत है। सर्वत्र उनकी कथाएं हैं और उनको सौर-संस्थापक तत्व के रूप में भी स्वीकारा गया है, जैसा कि Yelena Kuznetsova ने भी संकेत दिया है- Eagle, solar foundational element par excellence. Aztec culture. पिछले दिनों गरुड पुराण पर केंद्रित रहा तो बहुत से विचार उपजे। आपके पास भी बहुत से विचार होंगे...। बताइयेगा।
गरुड का एक रूप ये भी
वैष्णव मंदिरों में गरुड की प्रतिमा स्थापित होती है। विष्णु के साथ गरुड का संबंध पुराना है। महाभारत के नारायणीय प्रसंग के साथ ही यह संबंध दिखाई देता है, बाद में जबकि पांचरात्र संहिताओं का प्रणयन हुआ, तो गरुड को विष्णु के अनुचर अथवा वाहन के रूप में ख्यात किया गया। वैष्णव मंदिरों के विकासकाल में यह परंपरा सी बन गई कि विष्णु या उनके अवतारों के मंदिरों में अनिवार्यत: गरुड की प्रतिमा सम्मुख ही स्थापित की जाने लगी। हां, मध्यकालीन राम मंदिरों में हनुमान भी विराजित दिखाई देते हैं।
देवता मूर्ति प्रकरणम (रचनाकाल 1450 ई.) में मरकत के वर्ण जैसी कांतिमय, उलूक जैसी नासिका, चार हाथ और गोलाकार नेत्र व मुखाकृति लिए गरुड की प्रतिमा बनाने का निर्देश है। उसको गृध की तरह उरु, जानु व चरण बनाकर दो पंखों से विभूषित करने काे भी कहा गया है। सोने जैसी आभा तथा मोर जैसे नयन बनाना भी स्वीकारा गया है। प्रतिमा के एक हाथ में छत्र, दूसरे में कुंभ हों और दो हाथ प्रणाम की मुद्रा में होंगे। (देवता मूर्ति प्रकरणम् : संपादक श्रीकृष्ण जुगनू, दिल्ली, 2003 ई. अध्याय 5, श्लोक 64-68)
मित्रवर श्री प्रकाशजी मांजरेकर ने क्षेत्र माहुली सातारा स्थित रामेश्वर मंदिर की एक ऐसी प्रतिमा भेजी है, जो इन लक्षणों के अलावा रूप में है। इसमें गरुड स्थानक रूप में है, द्विभुजी हैं और करबद्ध रूप में हैं। उनके मुख से नागों को निकलता दिखाया गया है। ये उनके नागपाश हारक रूप का परिचायक है। कोपिनधारी गरुड़ के पांव पक्षी की तरह ही दिखाए गए हैं, उभय पार्श्व में नागाकृतियां हैं। अन्य वर्णन आपके सोचने के लिए... मगर हमारे इधर गरुड़ की जो प्रतिमाएं हैं, उनसे बिल्कुल न्यारी और निराली मूर्ति है यह।
गरुड स्तम्भ : एक परंपरा
विष्णु को गरुडध्वज भी कहा जाता है। भारतीय परंपरा में जिस-जिस देवता का जो-जो वाहन है, उसी से उसके ध्वज या चिन्ह की पहचान होती है। शिव वृषभध्वज है, ब्रह्मा हंसध्वज, कामदेव मकरध्वज, कार्तिकेय मयूरध्वज...। बहुत पहले जबकि पाणिनि का काल था, वासुदेव के नाम से ही विष्णु वासुदेवकों में उपास्य थे। यह श्रीकृष्ण के वसुदेव पुत्र होने का नाम था और इनके इसी नाम की उपासना पर जोर था।
घोसुंडी के शिलालेख में भी यही नाम आया है मगर वहां संकर्षण के बाद में वासुदेव का स्मरण है। और, इस मत तथा इसके भागवतीय दर्शन का प्रसार विदेश तक हो चुका था। वहां विष्णु को गरुडारूढ के रूप में जाना गया था और उनके अनुयायी भागवतीय कहे जाते थे। जैसा कि हेलियोडोरस के अभिलेख से ज्ञात होता है।
यवनदूत हेलियोडोरस तक्षशिला के विदेशी शासक अंतलिकित का दूत था। उसने लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व में बेसनगर जिला भिलसा, विदिशा में गरुडध्वज बनवाकर अपनी आस्थाओं का परिचय दिया था। विदेशी वासुदेव के प्रचार क्षेत्रों की यात्रा करना, वहां निर्माण कार्य करवाना और अपनी ओर से स्थायी स्मृति के रूप में पाषाणबद्ध कार्य करवाना अपना कर्तव्य समझने लगे थे, यह परंपरा तब बौद्धों में भी थी। (भारतीय प्रतिमा शास्त्र : परंपरा और प्रवृत्तियां : अनुभूति चौहान)
अभिलेखीय प्रमाणों से विदित होता है कि इस गरुडध्वज के बाद वासुदेव, जो विष्णु के रूप में ध्येय-ज्ञेय हुए, को गरुडवाहन के रूप में इतनी ख्याति मिली कि जहां कहीं वैष्णव मंदिरों का निर्माण हुआ, उनके साथ गरुड भी विराजित हुए। भागवतों या वासुदेवकों में तब 'जयसंहिता' (मूल महाभारत) के पठन-पाठन की परंपरा थी। उसके उन श्लोकों या पदों का प्रचार लिखकर करवाया जाता था जो जीवन में ध्येय के रूप में आवश्यक थे।
यथा : त्रीणि अमृत पदानि इह सुअनुष्ठितानि नयन्ति स्वर्गं - दम: त्याग: अप्रमाद:। (तुलनीय- महाभारत, गीता, धम्मपद) यह पंक्ति हेलियाडोर के स्तंभ से है।
यद्यपि यह कार्य अशोक के बाद हुआ मगर, इस दृष्टि से मायने रखता है कि इस कार्य को विदेशी लोग भारत में करवाने के इच्छुक थे, ग्रीक की कथाओं में तक श्रीकृष्ण के आख्यान उनके 'जय' नाम से मिलते हैं, यह पर्याय गोपालसहस्रनाम आदि में आया है। जय संहिता से ही श्रीकृष्ण के लीला चरितों का पता होता था, यही ग्रंथ गुप्तकाल तक भारतीय कथाओं का रूप होकर सामने आया और जैसा कि बाणभट्ट कहता है- उज्जैन में इसकी कथा को मंगलसूचक मानकर पढ़ा-पढ़ाया जाने लगा था। आज इतना ही... जय जय।
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू की पोस्टों से संग्रहित
#पक्षीराज_गरुण
वर्तमान दुनिया में सबसे बड़ा व उड़ने वाला पक्षी "केन्डोर" है जो दक्षिण अमेरिका में अवस्थित एंडीज पर्वतमाला की ऊंची व बर्फ़ीली चोटियों पर पाया जाता है ...
इसकी ऊँचाई लगभग दो मीटर होती है । यह किसी बच्चे या अच्छे खासे जानवर को आसानी से लेकर उड़ सकता है ...
गरुण को काल्पनिक मानने वाले इस पक्षी को क्या कहेंगे ?? ...
हमारे महाभारत और रामायण में वर्णित पक्षीराज गरुण इससे भी विशाल पक्षी था, ऋग्वेद में भी पक्षीराज गरुण का वर्णन है एक पूरा सूक्त गरुण के लिए समर्पित है .. जिसके साथ परिवर्ती पुराणों में कहानियां जोड़ दी गई और गरुण को मानवीय रूप में चित्रित किया गया ...
क्योकि सम्भव है कि तब तक यह प्रजाति लुप्त हो चुकी हो .. इसीलिए गरुण को मानवीय व ईश्वरीय रूप देकर हमारी संस्कृति का अंग बना दिया गया ...
ऐसा माना जाता है कि गरुण मूल रूप से हिमालय के आस पास ऊंची चोटियों पर पाए जाते थे ...
भगवान विष्णु की सवारी को गरुड़ के रूप में दिखाया जाता है ...भगवान विष्णु का ये वाहन माना जाता है। जहां भी भगवान विष्णु जाते हैं तो इस विशाल पक्षी पर बैठकर ही यात्रा करते हैं ...
गरुड़ को विनायक, गरुत्मत्, तार्क्ष्य, वैनतेय, नागान्तक, विष्णुरथ, खगेश्वर, सुपर्ण और पन्नगाशन नाम से भी जाना जाता है ....
गरुड़ हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म में भी महत्वपूर्ण पक्षी माना गया है ... अर्थात छठी सदी ईसा पूर्व तक कही ना कहीं गरुण पक्षी पाए जाते थे ...
महाभारत में गरूड़ की उत्पत्ति और महान कार्यों का वर्णन है ... कहा गया है कि घर में गरुण की प्रतिमा या चित्र रखे ... मंदिर में गरुड़ घंटी और मंदिर के शिखर पर गरुड़ ध्वज होता है।
गरुण पुराण में, मृत्यु के पहले और बाद की स्थिति के बारे में बताया गया है ... हिन्दू धर्मानुसार जब किसी के घर में किसी की मौत हो जाती है तो गरूड़ पुराण का पाठ रखा जाता है ...
कुछ विद्वान इसे गरुण पक्षी के विलुप्त होने से उपजे शोक की साहित्यिक अभिव्यक्ति मानते हैं ....
पक्षीराज गरुण भारत की सांस्कृतिक विरासत और हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग हैं ..
बड़े- बड़े राजा महाराजा भी अपना प्रतीक चिन्ह गरुड़ ही रखा करते थे ... सर्वप्रथम गुप्तों ने गरुण को राजकीय प्रतीक चिन्ह बनाया ....
गरुड़ इंडोनेशिया, थाईलैंड और मंगोलिया आदि में भी सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में लोकप्रिय है ... इंडोनेशिया का राष्ट्रीय प्रतीक गरुड़ हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी करें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.