"डॉक्टर साहब, कुछ तो तरीका होगा। आजकल साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है," नीरज ने चिंतित स्वर में कहा.....
"नीरज बाबू, मैं अपनी तरफ से दुआ ही कर सकता हूँ। बस आप इन्हें खुश रखिए। इससे बेहतर कोई दवा नहीं है और इन्हें लिक्विड देते रहिए, जो इन्हें पसंद हो।" डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए अपना बैग समेटा और बाहर निकल गए.....
नीरज अपने पिता की हालत से बहुत चिंतित था। उसे यह सोचकर ही बेचैनी होती थी कि पिता के बिना जीवन कैसा होगा। माँ के गुजरने के बाद अब सिर्फ पिता का आशीर्वाद ही था जो उसे जीने की ताकत देता था। उसे अपने बचपन और जवानी के दिन याद आने लगे, जब पिता हर दिन कुछ न कुछ लेकर घर आते थे। बाहर हल्की बारिश हो रही थी, मानो आसमान भी दुखी हो।
नीरज ने खुद को संभाला और पत्नी राधिका से कहा, "राधिका, आज सबके लिए मूंग दाल के पकौड़े और हरी चटनी बनाओ। मैं बाजार से जलेबी लेकर आता हूँ।"
राधिका ने दाल पहले ही भिगो रखी थी इसलिए वह भी तुरंत काम में लग गई। कुछ ही देर में रसोई से पकौड़ों की खुशबू आने लगी। नीरज भी जलेबियाँ लेकर घर लौट आया था। उसने जलेबी रसोई में रखी और पिता के पास बैठ गया। उनका हाथ अपने हाथ में लेकर नीरज बोला, "पापा, आज आपकी पसंद की चीजें लेकर आया हूँ। थोड़ी सी जलेबी खाएँगे ?"
पिता ने धीरे से आँखें झपकाईं और हल्की मुस्कान दी। वह धीमी आवाज़ में बोले "पकौड़े बन रहे हैं क्या ?"
"हाँ, पापा। आपकी पसंद की हर चीज अब मेरी भी पसंद है। राधिका जरा पकौड़े और जलेबी तो ले आओ" नीरज ने आवाज़ लगाई।
राधिका प्लेट में पकौड़े और जलेबियाँ लेकर आई। नीरज ने एक पकौड़ा उठाकर पिता को दिया। "लीजिए पापा, एक और लीजिए," उसने कहा।
"बस...अब पेट भर गया। थोड़ी सी जलेबी दे दो," पिता बोले।
नीरज ने जलेबी का एक छोटा टुकड़ा उठाकर उनके मुँह में डाल दिया। पिता उसे प्यार से देख रहे थे।
"नीरज, सदा खुश रहो बेटा। मेरा दाना-पानी अब पूरा हो गया," पिता बोले।
"पापा, आपको तो सेंचुरी पूरी करनी है। आप मेरे तेंदुलकर हो," नीरज की आँखों में आँसू आ गए।
पिता मुस्कुराए और बोले, "तेरी माँ पेवेलियन में इंतज़ार कर रही है। अगला मैच खेलना है। मैं तुम्हारे बेटे के रूप में लौटूंगा तब खूब खाऊंगा, बेटा।"
पिता उसे देखे जा रहे थे। नीरज ने प्लेट एक तरफ रख दी, लेकिन पिता की आँखें लगातार उसकी ओर टिकी रहीं। अब उनकी आँखें भी नहीं झपक रही थीं। नीरज समझ गया कि पिता की जीवन यात्रा पूरी हो चुकी थी।
तभी उसे याद आया कि पिता अक्सर कहते थे, "श्राद्ध पर कौआ बनकर खाने नहीं आऊंगा , जो खिलाना है अभी खिला दे।"
माँ-बाप का सम्मान करें और उन्हें जीते जी खुश रखें......🙏🙏
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी करें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.