खतरनाक पोस्ट.. वोट के लिए हिंदू बनने वालों के लिए...
वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार श्री मनमोहन शर्माजी के वॉल से...
राजधानी दिल्ली में 7 नवंबर, 1966 को क्या हुआ था? इस बाबत जितना लोग बताते हैं, उससे अधिक छुपा लेते हैं। मनमोहन शर्मा एक रिपोर्टर के तौर पर गो-भक्तों की उस रैली को कवर कर रहे थे। यहां पढ़ें कि उस दिन उन्होंने क्या देखा था-
मुझे खबर मिली कि दिल्ली में सात-आठ जगहों पर गोलियां चली हैं। गोल डाकखाना पर गोली चलने की खबर मिली। के. कामराज के घर पर गोली चली। विंडसर प्लेस पर गोलियां चलीं। ऐसी कई जगहें थीं। करीब दो घंटे तक दिल्ली के विभिन्न स्थानों पर गोलियां चलती रहीं। अनौपचारिक तौर पर यह बताया गया था कि करीब 11 हजार राउंड गोलियां चलाई गई हैं। यह भी पता चला कि गोलियां चलने से 2700 से 2800 लोगों की जान गई थी।
वह दृश्य भूला नहीं हूं। सुबह आठ बजे होंगे। लोग संसद के सामने इकट्ठा होने लगे थे। घंटे भर बाद ही एक विशाल जनसमूह वहां एकत्र हो चुका था। कहीं से भक्ति-संगीत की आवाजें आ रही थी, तो कोई गीता के श्लोक गा रहा था। यूं समझ लीजिए कि पूरा वातावरण भक्ति-मय था।
संसद के ठीक समाने एक विशाल मंच बना था। मंच पर करीब ढाई सौ लोग बैठे थे। चारो पीठों के शंकराचार्य मंच पर थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख लोग वहां थे। स्वयं करपात्री महाराज थे। आर्य समाजी और नामधारी समाज के प्रमुख लोग भी वहां मौजूद थे। आखिर कौन नहीं था! यहां सभी के नाम को क्या गिनाना है, कुल मिलाकर कहूं तो उस दिन मंच पर विराट हिन्दू समाज प्रकट हुआ था।
मंच से भाषण का सिलसिला चल रहा था। दूसरी तरफ धार्मिक-गीत गाते-बजाते जत्थे आते जा रहे थे। बच्चे, बुढ़े, महिलाएं सभी उन जत्थों में शामिल थे। कई महिलाओं की गोद में तो दूध पीते बच्चे थे। चूंकि मामला आस्था से जुड़ा था तो लोग भाव-भक्ति में डूबे चले आ रहे थे।
करीब पांच लाख लोग दिल्ली के बाहर से आए हुए थे। वे दिल्ली में जगह-जगह बिखरे हुए थे। सात नवंबर की सुबह अचानक संसद के सामने वह जन-सैलाब प्रकट हुआ। इन आंदोलनकारियों के हाथों में झंडे भी थे। लेकिन, वह झंडा किसी पार्टी या संगठन का नहीं था, बल्कि उन झंडों में गो-माता के चित्र प्रमुखता से दिखाई दे रहे थे। कुल मिलाकर दोपहर ग्यारह बजे तक सब कुछ अपनी गति और लय में चल रहा था। गुरुजी का भाषण समाप्त हो चुका था। कई अन्य लोग भी अपनी बात रख चुके थे।
अचानक अफवाह फैली कि कुछ लोगों ने के. कामराज के घर पर हमला कर दिया है। फिर ट्रांसपोर्ट भवन के सामने कुछ वाहनों में आग लगाने की खबर आई। यह भी देखा गया कि साधु समाज के कुछ लोगों ने संसद भवन के भीतर प्रवेश करने की कोशिश की। उस वक्त इन पंक्तियों का लेखक स्वयं संसद के प्रेस कक्ष में मौजूद था।
मैं खबरें प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था। तभी मेहताजी (संसद भवन के प्रमुख कर्मचारी) भागे-भागे वहां आए। उन्होंने मुझसे कहा- “शर्मा जी साधुओं पर गोलियां चल रही हैं। आप यहां बैठे हैं!” उन्हें जवाब देते हुए मैंने कहा – “नहीं, गोली नहीं चल रही होगी। आंसू गैस छोड़े जा रहे होंगे।”हमारे बीच इतनी बात हुई थी कि दो अन्य व्यक्ति वहां आए और कहने लगे- “बाहर गोलियां चल रही हैं।”
उनकी बातें सुनकर मैं चौंका। तेजी से बाहर निकला। वहां मैंने देखा कि आंसू गैस का धुंआ चारों तरफ फैला हुआ है। वह इतना घना था कि कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। गोलियां चल रही थीं। चारो तरफ कोहराम मचा था। कुल मिलाकर वह दृश्य भयावह था।
तत्काल मैं लौटकर वापस आया। तभी संसद के गेट पर हमारी भेंट गुलजारी लाल नंदाजी से हो गई। तब वे गृहमंत्री थे। चूंकि, उस करुण दृश्य को देखकर मैं भावुक हो उठा था, तो नंदाजी को देखकर मैं खुद को रोक न सका। मैं फट पड़ा। मैंने उनसे पूछा- “नंदाजी, इस दृश्य को देखकर क्या आपको शर्म नहीं आ रही है? आप निहत्थे गौ-भक्तों पर गोलियां चलवा रहे हैं।”
मुझे याद नहीं है कि तब गुस्से में मैंने उनसे क्या-क्या कहा था। हां, जवाब में नंदाजी ने कहा था- “सुनो, मैंने गोली चलाने के कोई आदेश नहीं दिए हैं। किसके आदेश से गोली चली है? यह मेरी जानकारी में नहीं है। इस घटना ने मुझे बहुत दुखी किया है।”
खैर, नंदाजी से बातचीत के बाद मैंने रूमाल भिगोकर चेहरे पर लपेटा और संसद परिसर से बाहर निकला। वहां से पटेल चौक आया। रास्ते में हर तरफ शव पड़े हुए थे। इतने खून बह रहे थे कि मेरा जूता खून से पूरी तरह लथपथ हो गया था। चारो तरफ से लोगों के कराहने की आवाज आ रही थी।
इसी दौरान मुझे खबर मिली कि दिल्ली में सात-आठ जगहों पर गोलियां चली हैं। गोल डाकखाना पर गोली चलने की खबर मिली। के. कामराज के घर पर गोली चली। विंडसर प्लेस पर गोलियां चलीं। ऐसी कई जगहें थीं। करीब दो घंटे तक दिल्ली के विभिन्न स्थानों पर गोलियां चलती रहीं।
मुझे अनौपचारिक तौर पर यह बताया गया था कि करीब 11 हजार राउंड गोलियां चलाई गई हैं। सूत्रों से यह भी पता चला कि गोलियां चलने से 2700 से 3088 लोगों की जान गई थी।
पूरी खोज-खबर लेने के बाद मैं अपने दफ्तार पहुंचा। उन दिनों हमारा दफ्तर ‘हिन्दुस्थान समाचार’ कनॉट प्लेस में था। मन व्यथित था, लेकिन खबर तो बनाना ही था, सो मैं खबर बनाने लगे। तभी मुझे सूचना मिली कि दिल्ली के चार अस्पतालों में उन शवों को रखा गया है, जिनमें एक विलिंगटन अस्पताल था। इसे हम आजकल राम मनोहर लोहिया अस्पताल के नाम से जानते हैं।
ज्यों ही मुझे खबर मिली, मैं वहां पहुंच गया। अस्पताल के बाहर सुरक्षाकर्मियों का कड़ा पहरा था। लेकिन एक कर्मचारी कुछ पैसे लेकर मुझे उन जगहों पर ले गया, जहां शव रखे थे। मैंने शवों को गिनना शुरू किया तो कुल 374 शव थे, जिनमें आठ महिलाएं के और 40-45 बच्चों के शव थे। वे सभी दूध पीते बच्चे थे।
मेरा अनुमान लगाया कि गोली चलने के बाद भगदड़ मची तो वे बच्चे कुचले गए होंगे। उन बच्चों के शरीर पर इसके ही जख्म थे। फिर मैं इरविन हॉस्पीटल (एलएनजेपी) आया। वहां सुरक्षा व्यवस्था इतनी सख्त थी कि शवों को गिनने का अवसर नहीं मिला। तब तक दिल्ली में सेना को तैनात कर दिया गया था। उन्हें सख्त निर्देश थे कि किसी को भीतर न आने दिया जाए। सेना ने उन सभी स्थानों को कब्जे में कर रखा था, जहां-जहां गोलियां चली थीं।
वापस दफ्तर लौट आया। तब तक भारत सरकार का एक निर्देश-पत्र भी दफ्तर पहुंच चुका था। सरकार की तरफ से सभी एजेंसियों व अखबारों को एक निर्देश जारी किया गया था, जिसमें कहा गया था उन्हें वही छापना है, जो सरकार की प्रेस-विज्ञप्ति में लिखा है। उस विज्ञप्ति में लिखा था- “गोली चलने से 16 लोग मरे।” उस दिन मैंने भी अपनी रिपोर्ट फाइल की, लेकिन हमें निर्देश था कि सरकार की विज्ञप्ति को ही खबर बनाया जाए। सरकार ने जो प्रेस विज्ञप्ति भेजी थी, उसे ही एजेंसियों ने चलाया। अखबारों में भी वही खबर छपी।
उस वक्त एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी मुझे मिली। वह यह कि आईबी ने रिपोर्ट दी थी कि यदि जरूरत पड़ने पर दिल्ली पुलिस को गोली चलाने का आदेश दिए गए तो संभव है कि वह गोली न चलाए। दिल्ली पुलिस साधु-संतों पर गोली चलाने से इनकार कर सकती है।
आईबी की इस सूचना के बाद ही जम्मू-कश्मीर मलेशिया पुलिस को खास तौर पर दिल्ली में तैनात किया गया था। इसमें ज्यादातर अन्य संप्रदाय के लोग थे। जब गोली चलाने के आदेश दिए गए तो इस दल के सुरक्षाकर्मियों ने समझ-बूझकर गो-भक्तों को जान से माने के लिए गोलियां चलाईं। उन्हें डराने या भगाने के लिए गोलियां नहीं चलाई गईं।
इस बात को मैं इसलिए दावे के साथ कहा रहा हूं, क्योंकि अधिकतर लोगों के शरीर पर जख्म के निशान कमर से ऊपर थे। जबकि, अक्सर कमर से नीचे गोली चलाने के आदेश होते हैं।
चार दिनों तक दिल्ली में कर्फ्यू लगा रहा। बाहर से आए आंदोलनकारियों को सेना के जवान बसों, ट्रकों में बिठाकर दिल्ली से बाहर जहां-तहां छोड़ने में जुटे रहे। पूरी क्षमता के साथ सेना ने अपना दो दिन इसी काम में लगाया। चूंकि यह डर बना हुआ था कि जिन गो-भक्तों ने अपनी आंखों के सामने लोगों को मरते देखा है, कहीं वे भड़क न जाएं। उनके गुस्से से बचने का यही रास्ता सरकार ने निकाला।
मैं जितनी जानकारियां इकट्ठा कर पाया, उसके आधार पर कह सकता हूं कि उस आंदोलन से सरकार हिल गई थी, इसलिए सरकार में शामिल कुछ षड्यंत्रकारी लोगों ने आंदोलन को बदनाम करने और उसे बल पूर्वक दबाने के लिए एक साजिश रची थी।
अगर कोई जांच आयोग गठित होता तो निश्चित तौर पर यह सच सामने आता। मेरे पास इस बात की पक्की जानकारी थी कि कांग्रेसी सांसद शशि भूषण वाजपेयी ने अपने गुंडों को लगाकर हिंसा भड़काई थी। हिंसक वारदातों को अंजाम देने के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से गुंडे बुलाए गए थे।
घटना के तीन दिन बाद गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने कहा, “मैं साधुओं का खून अपने सिर पर नहीं ले सकता।” उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
(मनमोहन शर्मा)
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