क्यों हम इस शिक्षा को ढो रहे हैं जो हमें हमारे भारत वासी होने पर ही हीन भावना से ग्रसित कर रही है? आखिर कब तक चलेगा यह सब?
राजा
भी कौन कौन से गजनी, तुगलक, ऐबक, लोदी, तैमूर, बाबर, अकबर, सिकंदर जो कि
भारतीय थे ही नहीं। राजा विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त, महाराणा प्रताप,
पृथ्वीराज चौहान गा...यब हैं, इस साजिश के पीछे कौन है...
लेख से
पहले आपको एक सच्ची कहानी सुनाना चाहती हूँ। हमारे देश में एक महान
वैज्ञानिक हुए हैं प्रो. श्री जगदीश चन्द्र बोस। भारत को और हम भारत
वासियों को उन पर बहुत गर्व है। इन्होने सबसे पहले अपने शोध से यह निष्कर्ष
निकाला कि मानव की तरह पेड़ पौधों में भी भावनाएं होती हैं। वे भी हमारी
तरह हँसते खिलखिलाते और रोते हैं। उन्हें भी सुख दुःख का अनुभव होता है। और
श्री बोस के इस अनुसंधान की तरह इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है।
श्री बोस ने शोध के लिये कुछ गमले खरीदे और उनमे कुछ पौधे लगाए। अब इन्होने
गमलों को दो भागों में बांटकर आधे घर के एक कोने में तथा शेष को किसी अन्य
कोने में रख दिया। दोनों को नियमित रूप से पानी दिया, खाद डाली। किन्तु एक
भाग को श्री बोस रोज़ गालियाँ देते कि तुम बेकार हो, निकम्मे हो, बदसूरत
हो, किसी काम के नहीं हो, तुम धरती पर बोझ हो, तुम्हे तो मर जाना चाहिए आदि
आदि। और दूसरे भाग को रोज़ प्यार से पुचकारते, उनकी तारीफ़ करते, उनके
सम्मान में गाना गाते। मित्रों देखने से यह घटना साधारण सी लगती है। किन्तु
इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन पौधों को श्री बोस ने गालियाँ दी वे मुरझा गए
और जिनकी तारीफ़ की वे खिले खिले रहे, पुष्प भी अच्छे दिए।
तो
मित्रों इस साधारण सी घटना से बोस ने यह सिद्ध कर दिया कि किस प्रकार से
गालियाँ खाने के बाद पेड़ पौधे नष्ट हो गए। अर्थात उनमे भी भावनाएं हैं।
मित्रों जब निर्जीव से दिखने वाले सजीव पेड़ पौधों पर अपमान का इतना
दुष्प्रभाव पड़ता है तो मनुष्य सजीव सदेह का क्या होता होगा? वही होता है
जो आज हमारे भारत देश का हो रहा है। 500 -700 वर्षों से हमें यही सिखाया
पढाया जा रहा है कि तुम बेकार हो, खराब हो, तुम जंगली हो, तुम तो हमेशा
लड़ते रहते हो, तुम्हारे अन्दर सभ्यता नहीं है, तुम्हारी कोई संस्कृती नहीं
है, तुम्हारा कोई दर्शन नहीं है, तुम्हारे पास कोई गौरवशाली इतिहास नहीं
है, तुम्हारे पास कोई ज्ञान विज्ञान नहीं है आदि आदि।
मित्रों
अंग्रेजों के एक एक अधिकारी भारत आते गए और भारत व भारत वासियों को कोसते
गए। अंग्र जों से पहले ये गालियाँ हमें फ्रांसीसी देते थे, और फ्रांसीसियों
से पहले ये गालियाँ हमें पुर्तगालियों ने दीं। इसी क्रम में लॉर्ड मैकॉले
का भी भारत में आगमन हुआ। किन्तु मैकॉले की नीति कुछ अलग थी। उसका विचार था
कि एक एक अंग्रेज़ अधिकारी भारत वासियों को कब तक कोसता रहेगा? कुछ ऐसी
परमानेंट व्यवस्था करनी होगी कि हमेशा भारत वासी खुद को नीचा ही देखें और
हीन भावना से ग्रसित रहें।
इसलिए उसने जो व्यवस्था दी उसका नाम
रखा Education System. सारा सिस्टम उसने ऐसा रचा कि भारत वासियों को केवल
वह सब कुछ पढ़ाया जाए जिससे वे हमेशा गुलाम ही रहें। और उन्हें अपने धर्म
संस्कृती से घृणा हो जाए। इस शिक्षा में हमें यहाँ तक पढ़ाया कि भारत वासी
सदियों से गौमांस का भक्षण कर रहे हैं। अब आप ही सोचे यदि भारत वासी सदियों
से गाय का मांस खाते थे तो आज के हिन्दू ऐसा क्यों नहीं करते? और इनके
द्वारा दी गयी सबसे गंदी गाली यह है कि हम भारत वासी आर्य बाहर से आये थे।
आर्यों ने भारत के मूल द्रविड़ों पर आक्रमण करके उन्हें दक्षिण तक खदेड़
दिया और सम्पूर्ण भारत पर अपना कब्ज़ा ज़मा लिया। और हमारे देश के वामपंथी
चिन्तक आज भी इसे सच साबित करने के प्रयास में लगे हैं।
इतिहास
में हमें यही पढ़ाया गया कि कैसे एक राजा ने दूसरे राजा पर आक्रमण किया।
इतिहास में केवल राजा ही राजा हैं प्रजा नदारद है, हमारे ऋषि मुनि नदारद
हैं। और राजाओं की भी बुराइयां ही हैं अच्छाइयां गायब हैं। आप जरा सोचे कि
अगर इतिहास में केवल युद्ध ही हुए तो भारत तो हज़ार साल पहले ही ख़त्म हो
गया होता। और राजा भी कौन कौन से गजनी, तुगलक, ऐबक, लोदी, तैमूर, बाबर,
अकबर, सिकंदर जो कि भारतीय थे ही नहीं। राजा विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त,
महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान गायब हैं। इनका ज़िक्र तो इनके आक्रान्ता
के सम्बन्ध में आता है। जैसे सिकंदर की कहानी में चन्द्रगुप्त का नाम है।
चन्द्रगुप्त का कोई इतिहास नहीं पढ़ाया गया। और यह सब आज तक हमारे
पाठ्यक्रमों में है।
इसी प्रकार अर्थशास्त्र का विषय है। आज भी
अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले बड़े बड़े विद्वान् विदेशी
अर्थशास्त्रियों को ही पढ़ते हैं। भारत का सबसे बड़ा अर्थशास्त्री चाणक्य
तो कही है ही नहीं। उनका एक भी सूत्र किसी स्कूल में भी बच्चों को नहीं
पढ़ाया जाता। जबकि उनसे बड़ा अर्थशास्त्री तो पूरी दुनिया में कोई नहीं
हुआ। दर्शन शास्त्र में भी हमें भुला दिया गया। आज भी बड़े बड़े दर्शन
शास्त्री अरस्तु, सुकरात, देकार्ते को ही पढ़ रहे हैं जिनका दर्शन भारत के
अनुसार जीरो है।
अरस्तु और सुकरात का तो ये कहना था कि स्त्री के
शरीर में आत्मा नहीं होती वह किसी वस्तु के समान ही है, जिसे जब चाहा बदला
जा सकता है। आपको पता होगा १९५० तक अमरीका और यूरोप के देशों में स्त्री को
वोट देने का अधिकार नहीं था। आज से २०-२२ साल पहले तक अमरीका और यूरोप में
स्त्री को बैंक अकाउंट खोलने का अधिकार नहीं था। साथ ही साथ अदालत में तीन
स्त्रियों की गवाही एक पुरुष के बराबर मानी जाती थी। इसी कारण वहां
सैकड़ों वर्षों तक नारी मुक्ति आन्दोलन चला तब कहीं जाकर आज वहां स्त्रियों
को कुछ अधिकार मिले हैं। जबकि भारत में नारी को सम्मान का दर्जा दिया गया।
हमारे भारत में किसी विवाहित स्त्री को श्रीमति कहते हैं। कितना सुन्दर
शब्द हैं श्रीमती जिसमे दो देवियों का निवास है। श्री होती है लक्ष्मी और
मति यानी बुद्धि अर्थात सरस्वती। हम औरत में लक्ष्मी और सरस्वती का निवास
मानते हैं। किन्तु फिर भी हमारे प्राचीन आचार्य दर्शन शास्त्र से गायब हैं।
हमारा दर्शन तो यह कहता है कि पुरुष को सभी शक्तियां अपनी माँ के गर्भ से
मिलती हैं और हम शिक्षा ले रहे हैं उस आदमी की जो यह मानता है कि नारी में
आत्मा ही नहीं है।
चिकत्सा के क्षेत्र में महर्षि चरक, शुषुक,
धन्वन्तरी, शारंगधर, पातंजलि सब गायब हैं और पता नहीं कौन कौन से विदेशी
डॉक्टर के नाम हमें रटाये जाते हैं। आयुर्वेद जो न केवल चिकित्सा शास्त्र
है अपितु जीवन शास्त्र है वह आज पता नहीं चिकित्सा क्षेत्र में कौनसे
पायदान पर आता है?
बच्चों को स्कूल में गणित में घटाना सिखाते समय
जो प्रश्न दिया जाता है वह कुछ इस प्रकार होता है- पापा ने तुम्हे दस
रुपये दिए, जिसमे से पांच रुपये की तुमने चॉकलेट खा ली तो बताओ तुम्हारे
पास कितने रुपये बचे? यानी बच्चों को घटाना सिखाते समय चॉकलेट कम्पनी का
उपभोगता बनाया जा रहा है। हमारी अपनी शिक्षा पद्धति में यदि घटाना सिखाया
जाता तो प्रश्न कुछ इस प्रकार का होता-
पिताजी ने तुम्हे दस रुपये
दिए जिसमे से पांच रुपये तुमने किसी गरीब लाचार को दान कर दिए तो बताओ
तुम्हारे पास कितने रुपये बचे? जब बच्चा बार बार इस प्रकार के सवालों के हल
ढूंढेगा तो उसके दिमाग में कभी न कभी यह प्रश्न जरूर आएगा कि दान क्या
होता है, दान क्यों करना चाहिए, दान किसे करना चाहिए आदि आदि? इस प्रकार
बच्चे को दान का महत्त्व पता चलेगा। किन्तु चॉकलेट खरीदते समय बच्चा यही
सोचेगा कि चॉकलेट कौनसी खरीदूं कैडबरी या नेस्ले?
अर्थ साफ़ है यह
शिक्षा पद्धति हमें नागरिक नहीं बना रही बल्कि किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी
का उपभोगता बना रही है। और उच्च शिक्षा के द्वारा हमें किसी विदेशी
यूनिवर्सिटी का उपभोगता बनाया जा रहा है या किसी वेदेशी कम्पनी का नौकर।
मैंने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई में कभी यह नहीं सीखा कि कैसे मै अपने
तकनीकी ज्ञान से भारत के कुछ काम आ सकूँ, बल्कि यह सीखा कि कैसे मै किसी
Multi National Company में नौकरी पा सकूँ, या किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में
दाखिला ले सकूँ।
तो मित्रों सदियों से हमें वही सब पढ़ाया गया कि
हम कितने अज्ञानी हैं, हमें तो कुछ आता जाता ही नहीं था, ये तो भला हो
अंग्रेजों का कि इन्होने हमें ज्ञान दिया, हमें आगे बढ़ना सिखाया आदि आदि।
यही विचार ले कर लॉर्ड मैकॉले भारत आया जिसे तो यह विश्वास था कि स्त्री
में आत्मा नहीं होती और वह हमें शिक्षा देने चल पड़ा। हम भारत वासी जो यह
मानते हैं कि नारी में देवी का वास है उसे मैकॉले की इस विनाशकारी शिक्षा
की क्या आवश्यकता है?
हमारे प्राचीन ऋषियों ने तो यह कहा था कि
दुनिया में सबसे पवित्र नारी है और पुरुष में पवित्रता इसलिए आती है क्यों
कि उसने नारी के गर्भ से जन्म लिया है। जो शिक्षा मुझे मेरी माँ से जोडती
है उस शिक्षा को छोड़कर मुझे एक ऐसी शिक्षा अपनानी पड़ी जिसे मेरी माँ
समझती भी नहीं। हम तो हमारे देश को भी भारत माता कहते हैं। किन्तु हमें उस
व्यक्ति की शिक्षा को अपनाना पड़ा जो यह मानता है कि मेरी माँ में आत्मा ही
नहीं है। और एक ऐसी शिक्षा पद्धति जो हमें नारी को पब, डिस्को और बीयर बार
में ले जाना सिखा रही है, क्यों?
आज़ादी से पहले यदि यह सब चलता
तो हम मानते भी कि ये अंग्रेजों की नीति है, किन्तु आज क्यों हम इस शिक्षा
को ढो रहे हैं जो हमें हमारे भारत वासी होने पर ही हीन भावना से ग्रसित कर
रही है? आखिर कब तक चलेगा यह सब?
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