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वैशाख मास की श्रेष्ठता
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नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
अर्थ – भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके भगवान की विजय-कथा से परिपूर्ण इतिहास-पुराण आदि का पाठ करना चाहिए।
सूतजी कहते हैं – राजा अम्बरीष ने परमेष्ठी ब्रह्मा के पुत्र देवर्षि नारद से पुण्यमय वैशाख मास का माहात्म्य सुना। उस समय आपने यह कहा था कि सब महीनों में वैशाख मास श्रेष्ठ है। इसलिए यह बताने की कृपा करें कि वैशाख मास क्यों भगवान विष्णु को प्रिय है और उस समय कौन-कौन से धर्म भगवान विष्णु के लिए प्रीतिकारक हैं?
नारद जी ने कहा – वैशाख मास को ब्रह्मा जी ने सब मासों में उत्तम सिद्ध किया है। वह माता की भाँति सब जीवों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। धर्म, यज्ञ, क्रिया और तपस्या का सार है। संपूर्ण देवताओं द्वारा पूजित है। जैसे विद्याओं में वेद-विद्या, मन्त्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, प्रिय वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगाजी, तेजों में सूर्य, अस्त्र-शस्त्रों में चक्र, धातुओं में सुवर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि है, उसी प्रकार धर्म के साधनभूत महीनों में वैशाख मास सबसे उत्तम है। संसार में इसके समान भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला दूसरा कोई मास नहीं है। जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान विष्णु निरन्तर प्रीति करते हैं। पाप तभी तक गर्जते हैं जब तक जीव वैशाख मास में प्रात: काल जल में स्नान नहीं करता।
राजन् ! वैशाख के महीने में सब तीर्थ आदि देवता बाहर के जल में भी सदैव स्थित रहते हैं भगवान विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिए वे सूर्योदय से लेकर छ: दण्ड के भीतर तक वहाँ मौजूद रहते हैं। वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सतयुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। जल के समान दान नहीं है, खेती के समान धन नहीं है और जीवन से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। उपवास के समान कोई तप नहीं, दान से बढ़कर कोई सुख नहीं, दया के समान धर्म नहीं, धर्म के समान मित्र नहीं, सत्य के समान यश नहीं, आरोग्य के समान उन्नति नहीं, भगवान विष्णु से बढ़कर कोई रक्षक नहीं और वैशाख मास के समान संसार में कोई पवित्र मास नहीं है। ऎसा विद्वान पुरुषों का मत है।
वैशाख श्रेष्ठ मास है और शेषशायी भगवान विष्णु को सदा प्रिय है। सब दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थों में जो फल होता है, उसी को मनुष्य वैशाख मास में केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। जो जलदान में असमर्थ है, ऎसे ऎश्वर्य की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को उचित है कि वह दूसरे को प्रबोध करे, दूसरे को जलदान का महत्त्व समझावे। यह सब दानों से बढ़कर हितकारी है। जो मनुष्य वैशाख में सड़क पर यात्रियों के लिए प्याऊ लगाता है वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है।
नृपश्रेष्ठ ! प्रपादान (प्याऊ) देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को अत्यन्त प्रीति देने वाला है। जिसने प्याऊ लगाकर रास्ते के थके-माँदे मनुष्यों को सन्तुष्ट किया है, उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को सन्तुष्ट कर लिया है। राजन् ! वैशाख मास में जल की इच्छा रखने वाले को जल, छाया चाहने वाले को छाता और पंखे की इच्छा रखने वाले को पंखा देना चाहिए। राजेन्द्र ! जो प्यास से पीड़ित महात्मा पुरुष के लिए शीतल जल प्रदान करता है, वह उतने ही मात्र से दस हजार राजसूय यज्ञों का फल पाता है। धूप और परिश्रम से पीड़ित ब्राह्मण को जो पंखा डुलाकर हवा करता है, वह उतने ही मात्र से निष्पाप होकर भगवान का पार्षद हो जाता है।
जो मार्ग से थके हुए श्रेष्ठ द्विज को वस्त्र से भी हवा करता है, वह उतने से ही मुक्त हो भगवान विष्णु का सायुज्य परप्त कर लेता है। जो शुद्ध चित्त से ताड़ का पंखा देता है वह सब पापों का नाश करके ब्रह्मलोक को जाता है। जो विष्णुप्रिय वैशाख मास में पादुका दान करता है, वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक में जाता है। जो मार्ग में अनाथों के ठहरने के लिए विश्रामशाला बनवाता है, उसके पुण्य-फल का वर्णन किया नहीं जा सकता। मध्याह्न में आये हुए ब्राह्मण अतिथि को यदि कोई भोजन दे तो उसके फल का अन्त नहीं है।
राजन् ! अन्नदान मनुष्यों को तत्काल तृप्त करने वाला है इसलिए संसार में अन्न के समान कोई दान नहीं है। जो मनुष्य मार्ग के थके हुए ब्राह्मण के लिए आश्रय देता है उसके पुण्यफल का वर्णन किया नहीं जा सकता। भूपाल ! जो अन्नदाता है, वह माता-पिता आदि का भी विस्मरण करा देता है इसलिए तीनों लोकों के निवासी अन्नदान की ही प्रशंसा करते हैं। माता और पिता केवल जन्म के हेतु हैं पर जो अन्न देकर पालन करता है, मनीषी पुरुष इस लोक में उसी को पिता कहते हैं।
वैशाख स्नान के नियम
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महीरथ नाम का एक राजा था जो सदा कामनाओं में आसक्त और अजितेन्द्रिय था। वह केवल वैशाख स्नान के सुयोग से स्वत: वैकुण्ठधाम को चला गया। वैशाख मास के देवता भगवान मधुसूदन हैं। अतएव वह सफल मास है। वैशाख मास में भगवान की प्रार्थना का मन्त्र इस प्रकार है –
मधुसूदन देवेश वैशाखे मेषगे रवौ।
प्रात:स्नानं करिष्यामि निर्विघ्नं कुरु माधव।।
अर्थ – हे मधुसूदन ! हे देवेश्वर माधव ! मैं मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर वैशाख मास में प्रात: स्नान करुँगा, आप इसे निर्विघ्न पूर्ण कीजिए।
तत्पश्चात निम्नांकित मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करना चाहिए –
वैशाखे मेषगे भानौ प्रात:स्नानपरायण:।
अर्घ्यं तेSहं प्रदास्यामि गृहाण मधुसूदन।।
अर्थ – सूर्य के मेष राशि पर स्थित रहते हुए वैशाख मास में प्रात: स्नान के नियम में संलग्न होकर मैं आपको अर्घ्य देता हूँ। मधुसूदन ! इसे ग्रहण कीजिए।
इस प्रकार अर्घ्य समर्पण करके स्नान करें फिर वस्त्रों को पहनकर संध्या तर्पण आदि सब कर्मों को पूरा करके वैशाख मास में विकसित होने वाले पुष्पों से भगवान विष्णु की पूजा करें। उसके बाद वैशाख मास के माहात्म्य को सूचित करने वाली भगवान विष्णु की कथा सुने। ऎसा करने से कोटि जन्मों के पापों से मुक्त होकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है। यह शरीर अपने अधीन है, जल भी अपने अधीन ही है, साथ ही अपनी जिह्वा भी अपने वश में है। अत: इस स्वाधीन शरीर से स्वाधीन जल में स्नान करके स्वाधीन जिह्वा से “हरि” इन दो अक्षरों का उच्चारण करें। जो वैशाख मास में तुलसीदल से भगवान विष्णु की पूजा करता है, वह विष्णु की सायुज्य मुक्ति को पाता है। अत: अनेक प्रकार के भक्तिमार्ग से तथा भाँति-भाँति के व्रतों द्वारा भगवान विष्णु की सेवा तथा उनके सगुण या निर्गुण स्वरूप का अनन्य चित्त से ध्यान करना चाहिए।
वैशाख मास में छत्र दान से हेमन्त का उद्धार
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नारदजी कहते हैं – एक समय विदेहराज जनक के घर दोपहर के समय श्रुतदेव नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ मुनि पधारे, जो वेदों के ज्ञाता थे। उन्हें देखकर राजा बड़े उल्लास के साथ उठकर खड़े हो गए और मधुपर्क आदि सामग्रियों से उनकी विधिपूर्वक पूजा करके राजा ने उनके चरणोदक को अपने मस्तक पर धारण किया। इस प्रकार स्वागत-सत्कार के पश्चात जब वे आसन पर विराजमान हुए तब विदेहराज के प्रश्न के अनुसार वैशाख मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए वे इस प्रकार बोले।
श्रुतदेव ने कहा – राजन् ! जो लोग वैशाख मास में धूप से सन्तप्त होने वाला माहात्मा पुरुषों के ऊपर छाता लगाते हैं, उन्हें अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं।
पहले वंग देश में हेमकान्त नाम से विख्यात एक राजा थे। वे कुशकेतु के पुत्र परम बुद्धिमान और शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन वे शिकार खेलने में आसक्त होकर एक गहन वन में जा घुसे। वहाँ अनेक प्रकार के मृग और वराह आदि जन्तुओं को मारकर जब वे बहुत थक गए तब दोपहर के समय मुनियों के आश्रम पर आए। उस समय आश्रम पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शतर्चि नाम वाले ऋषि समाधि लगाए बैठे थे, जिन्हें बाहर के कार्यों का कुछ भी ज्ञान नहीं होता था। उन्हें निश्चल बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन महात्माओं को मार डालने का निश्चय किया तब उन ऋषियों के दस हजार शिष्यों ने राजा को मना करते हुए कहा – “ओ खोटी बुद्धिवाले नरेश ! हमारे गुरु लोग इस समय समाधि में स्थित हैं, बाहर कहाँ क्या हो रहा है – इसको ये नहीं जानते इसलिए इन पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए।”
तब राजा ने क्रोध से विह्वल होकर शिष्य़ों से कहा – द्विजकुमारों ! मैं मार्ग से थका-माँदा यहाँ आया हूँ। अत: तुम्हीं लोग मेरा आतिथ्य करो। राजा के ऎसा कहने पर वे शिष्य बोले – “हम लोग भिक्षा माँगकर खाने वाले हैं। गुरुजनों ने हमें किसी के आतिथ्य के लिए आज्ञा नहीं दी है। हम सर्वथा गुरु के अधीन हैं। अत: तुम्हारा आतिथ्य मैसे कर सकते हैं।” शिष्यों का यह कोरा उत्तर पाकर राजा ने उन्हें मारने के लिए धनुष उठाया और इस प्रकार कहा – “मैंने हिंसक जीवों और लुटेरों के भय आदि से जिनकी अनेकों बार रक्षा की है, जो मेरे दिए हुए दानों पर ही पलते हैं, वे आज मुझे ही सिखलाते चले हैं। ये मुझे नहीं जानते, ये सभी कृतघ्न और बड़े अभिमानी हैं। इन आततायियों को मर डालने पर भी मुझे कोई दोष नहीं लगेगा।” ऎसा कहकर वे कुपित हो धनुष से बाण छोड़ने लगे।
बेचारे शिष्य आश्रम छोड़कर भय से भाग चले। भागने पर भी हेमकान्त ने उनका पीछा किया और तीन सौ शिष्यों को मर गिराया। शिष्यों के भाग जाने पर आश्रम पर जो कुछ सामग्री थी उसे राजा के पापात्मा सैनिकों ने लूट लिया। राजा के अनुमोदन से ही उन्होंने वहाँ इच्छानुसार भोजन किया। तत्पश्चात दिन बीतते-बीतते राजा सेना के साथ अपनी पुरी में आ गए। राजा कुशकेतु ने जब अपने पुत्र का यह अन्यायपूर्ण कार्य सुना तब उसे राज्य करने के अयोग्य जानकर उसकी निन्दा करते हुए उसे देश निकाला दे दिया। पिता के त्याग देने पर हेमकान्त घने वन में चला गया। वहाँ उसने बहुत वर्षों तक निवास किया। ब्रह्महत्या उसका सदा पीछा करती रहती थी इसलिए वह कहीं भी स्थिरतापूर्वक रह नहीं पाता था।
इस प्रकार उस दुष्टात्मा के अठ्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गए। एक दिन वैशाख मास में जब दोपहर का समय हो रहा था, महामुनि त्रित तीर्थयात्रा के प्रसंग से उस वन में आए। वे धूप से अत्यन्त संतप्त और तृषा से बहुत पीड़ित थे इसलिए किसी वृक्षहीन प्रदेश में मूर्च्छित होकर गिर पड़े। दैवयोग से हेमकान्त उधर आ निकला, उसने मुनि को प्यास से पीड़ित, मूर्च्छित और थका-माँदा देख उन पर बड़ी दया की। उसने पलाश के पत्तों से छत्र बनाकर उनके ऊपर आती हुई धूप का निवारण किया। वह स्वयं मुनि के मस्तक पर छाता लगाए खड़ा हुआ और तूँबी में रखा हुआ जल उनके मुँह में डाला।
इस उपचार से मुनि को चेत(होश) हो आया और उन्होंने क्षत्रिय के दिए हुए पत्ते के छाते को लेकर अपनी व्याकुलता दूर की। उनकी इन्द्रियों में कुछ शक्ति आई और वे धीरे-धीरे किसी गाँव में पहुँच गए। उस पुण्य के प्रभाव से हेमकान्त की तीन सौ ब्रह्महत्याएँ नष्ट हो गईं। इसी समय यमराज के दूत हेमकान्त को लेने के लिए वन में आए। उन्होंने उसके प्राण लेने के लिए संग्रहणी रोग पैदा किया। उस समय प्राण छूटने की पीड़ा से छटपटाते हुए हेमकान्त ने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतों को देखा जिनके बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। उस समय अपने कर्मों को याद करके वह चुप हो गया। छत्र-दान के प्रभाव से उसको विष्णु भगवान का स्मरण हुआ।
उसके स्मरण करने पर महाविष्णु ने विष्वक् सेन से कहा – “तुम शीघ्र जाओ, यमदूतों को रोकों, हेमकान्त की रक्षा करो। अब यह निष्पाप और मेरा भक्त हो गया है। उसे नगर में ले जाकर उसके पिता को सौंप दो। साथ ही मेरे कहने से कुशकेतु को यह समझाओ कि तुम्हारे पुत्र ने अपराधी होने पर भी वैशाख मास में छत्र-दान करके एक मुनि की रक्षा की है। अत: वह पाररहित हो गया है। इस पुण्य के प्रभाव से वह मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला दीर्घायु, शूरता और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा तुम्हारे समान गुणवान हो गया है। इसलिए अपने महाबली पुत्र को तुम राज्य का भार सँभालने के लिए नियुक्त करो। भगवान विष्णु ने तुम्हें ऎसी ही आज्ञा दी है। इस प्रकार राजा को आदेश देकर हेमकान्त को उनके अधीन करके यहाँ लौट आओ।”
भगवान विष्णु का यह आदेश पाकर महाबली विष्वक् सेन ने हेमकान्त के पास आकर यमदूतों को रोका और अपने कल्याणमय हाथों से उसके सब अंगों में स्पर्श किया। भगवद्भक्त के स्पर्श से हेमकान्त की सारी व्याधि क्षण भर में दूर हो गई। तदनन्तर विष्वक् सेन उसके साथ राजा की पुरी में गए। उन्हें देखकर महाराज कुशकेतु ने आश्चर्ययुक्त हो भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर पृथ्वी पर साष्टांग प्रणाम किया और भगवान के पार्षद का अपने घर में प्रवेश कराया। वहाँ नाना प्रकार के स्तोत्रों से उनकी स्तुति तथा वैभवों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात महाबली विष्वक् सेन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा को हेमकान्त के विषय में भगवान विष्णु ने जो संदेश दिया था, वह सब कह सुनाया। उसे सुनकर कुशकेतु ने पुत्र को राज्य पर बिठा दिया और स्वयं विष्वक् सेन की आज्ञा लेकर पत्नी सहित वन को प्रस्थान किया।
तदनन्तर महामना विष्वक् सेन हेमकान्त से पूछकर और उसकी प्रशंसा करके श्वेतद्वीप में भगवान विष्णु के समीप चले गए तब से राजा हेमकान्त वैशाख मास में बताए हुए भगवान की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले शुभ धर्मों का प्रति वर्ष पालन करने लगे। वे ब्राह्मणभक्त, धर्मनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय, सब प्राणियों के प्रति दयालु और संपूर्ण यज्ञों की दीक्षा में स्थित रहकर सब प्रकार की संपदाओं से संपन्न हो गए। उन्होंने पुत्र-पौत्र आदि के साथ समस्त भोगों का उपभोग करके भगवान विष्णु का लोक प्राप्त किया। वैशाख मास सुख से साध्य, अतिशय पुण्य प्रदान करने वाला है। पापरूपी ईंधन को अग्नि की भाँति जलाने वाला, परम सुलभ तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष – चारों पुरुषार्थों को देने वाला है।
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