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बुधवार, 29 नवंबर 2023

ये है आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती देने वाले विश्व के महान भारतीय गणितज्ञ डॉ . वशिष्ठ नारायण सिंह

 

एक बूढ़ा आदमी हाथ में पेंसिल लेकर यूं ही पूरे घर में चक्कर काट रहा था, कभी अख़बार, कभी कॉपी, कभी दीवार, कभी घर की रेलिंग, जहां भी उनका मन करता, वहां कुछ लिखते, कुछ बुदबुदाते हुए।।घर वाले भी उन्हें देखते रहते हैं, कभी आंखों में आंसू तो कभी चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े।

77 साल का 'पगला सा' यह आदमी अपने जवानी में 'वैज्ञानिक जी' के नाम से मशहूर था। मिलिए…... ये है आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती देने वाले विश्व के महान भारतीय गणितज्ञ डॉ . वशिष्ठ नारायण सिंह जो छात्र के रूप में एक किंवदंती बन चुके है।

लेकिन ये इस देश का दुर्भाग्य ही है कि 47 साल से मानसिक बीमारी सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित वशिष्ठ नारायण सिंह बेहतर इलाज के अभाव में पटना के एक अपार्टमेंट में गुमनामी का जीवन बिता रहे हैं।

इनके बारे में मेरे द्वारा लिखा जाना सूर्य को दीयां दिखाने के समान होगा। लेकिन आपकी जानकारी के लिए उनकी कुछ उपलब्धियों का जिक्र जरूर करना चाहूंगा। जिसके बारे में जानकर विकृत हो जाएगी सारी दुनिया विशेषकर महानतम भारत देश और यह समाज…

  • श्री वशिष्ठ का जन्म 2 अप्रैल 1942 में भारत के बिहार में भोजपुर जिले के बसंतपुर गाँव में लाल बहादुर सिंह और लाहसो देवी के यहाँ हुआ था।
  • प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा नेतरहाट आवासीय विद्यालय से प्राप्त की और परीक्षा में सर्वोच्च स्थान पाया।
  • श्री वशिष्ठ के लिए पटना विश्वविद्यालय के कानून बदलाव किये। जिसमे श्री वशिष्ठ को B..Sc. के तीन वर्षीय पाठ्यक्रम के स्थान पर दो वर्षीय पाठ्यक्रम में उपस्थित होने की अनुमति दी गई और पटना साइंस कॉलेज से B. Sc.आनर्स में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया।
  • श्री वशिष्ठ की इस प्रतिभा को हमारे देश का कोई भी बुद्धजीवी पहचान नही सका बल्कि सात समंदर पार कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नज़र उन पर पड़ी और उनकी प्रतिभा को पहचाना। 1965 में श्री वशिष्ठ नारायण अमरीका चले गए। वहाँ उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में मैथमेटिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर बन गए। 1969 में "द पीस आफ स्पेस थ्योरी" विषयक पर उनके शोध पत्र ने दुनिया मे तहलका मचा दिया और बर्कले यूनिवर्सिटी ने उन्हें " जीनियसों का जीनियस " कहा।
  • अमेरिकी स्पेस एजेंसी NASA में काम करते हुए विदेशी धरती पर जब श्री वशिष्ठ का मन नही लगा तो, 1971 में देश सेवा का प्रण लिए वतन वापसी की और IIT कानपुर, फिर टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च, बंबई और फिर Indian Statistical Institute, कोलकाता में नौकरी की और 2014 में, उन्हें मधेपुरा में भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय (बी.एन.एम.यू.) में एक अतिथि प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया। डॉ० वशिष्ठ के बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लांचिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक समान था।

बीमारी और सदमा

खुद को कमरे में बंद करके दिन-दिन भर पढ़ते रहना, रात भर जागना डॉ० वशिष्ठ के व्यवहार में शामिल था। वह कुछ दवाइयां भी खाते थे लेकिन वे किस बीमीरी की थीं, इस सवाल को टाल दिया करते थे। उनके इस व्यवहार से उनकी पत्नी जल्द परेशान हो गईं और तलाक़ ले लिया। यह डॉ० वशिष्ठ के लिए बड़ा सदमा था। तक़रीबन यही वह वक्त था जब वह आई.एस.आई. कोलकाता में अपने सहयोगियों के बर्ताव से भी वशिष्ठ परेशान थे क्योंकि कई वरिष्ठ प्रोफ़ेसर्स उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया करते थे और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी।

इसे के चलते 1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा, जिसके बाद उन्हें 1976 में रांची के मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती करवाया गया। सरकार द्वारा इलाज के लिए दी जाने वाली वित्तीय मदद बहुत ही कम होने के कारण उचित इलाज नही हो सका।

श्री वशिष्ठ का परिवार भी शायद अब उनके इलाज को लेकर नाउम्मीद हो चुका है। लेकिन उनके किताबों से भरे बक्से, दीवारों पर श्री वशिष्ठ की लिखी हुई बातें, उनकी लिखी कॉपियां अब उनको भी डराती होंगी। डर इस बात का कि क्या वशिष्ठ बाबू के बाद ये सब रद्दी की तरह बिक जाएगा।

बहुत ही मामूली आदमी का बेटा श्री वशिष्ठ से आखिर क्या गलती हुई कि आज वह इस स्थिति में हैं ? सिर्फ और सिर्फ यही कि देशप्रेम में उन्होंने अमेरिका में न जाने कितने ऑफर ठुकरा दिए और अपनी मातृभूमि की सेवा करने चले आए। लेकिन भारत माता की छाती पर पहले से बैठे सु० ( कु० ) पुत्रों ने उनको पागल बना कर वशिष्ठ पागल की उपाधि से नवाजा। जिस वशिष्ठ का एक जमाना था जिसे गणित में आर्यभट्ट व रामानुजम का विस्तार माना जाता था, वही वशिष्ठ , जिनके चलते पटना विश्वविद्यालय को अपना कानून बदलना पड़ा था । इस चमकीले तारे के खाक बनने की लम्बी दास्तान है। खैर , उन तमाम लोगों को बहुत - बहुत धन्यवाद , जो अपने को अनाम / गुमनाम रखते हुए , डॉ वशिष्ठ के भोजन , पटना में उनके रहने का इंतजाम , दवाई आदि का प्रबंध किए हुए हैं ।

इस देश में एक मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है, लेकिन डॉ० वशिष्ठ जैसे सपूतों को इस समाज ने मानसिक रोगी बना दिया। डॉ०वशिष्ठ का क्या गया ? गया तो इस देश - समाज का , जो उनका उपयोग नहीं कर पाया ।

स्रोत: गूगल, विकिपीडिया, बीबीसी

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