यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 15 जून 2021

लास्ट लेसन : कोरोना

लास्ट लेसन : कोरोना
---------------------------

सभी को देख लिया,
सालों साल सुबह नियम से गार्डन जाने वालों को भी,

खेलकूद खेलने वालों को भी,

जिमिंग वालों को भी,

रोजाना योगा करने वालों को भी,

'अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज' रूटीन वाले अनुशासितों को भी,

कोरोना ने किसी को नहीं छोड़ा !!

उन स्वास्थ्य सजग व्यवहारिकों को भी, जिन्होंने फटाफट दोनों वैक्सीन लगवा ली थीं!!

बचा वही है, जिसका एक्स्पोज़र नहीं हुआ या कहिए कि किसी कारणवश वायरस से सामना नहीं हुआ!
हालांकि उनका खतरा अभी बरकरार है !!

दूसरी बात,
ऐसे बहुत लोग मृत्यु को प्राप्त हुए जिन्हें कोई को-मॉरबिडिटीज (अतिरिक्त बीमारियां) नहीं थीं!

वहीं, ऐसे अनेक लोग बहुत बिगाड़ के बावज़ूद बच गए जिनका स्वास्थ्य कमज़ोर माना जाता था.. और जिन्हें अनेक बीमारियां भी थीं!!

कारण क्या है ??

ध्यान से सुनिए,

हेल्थ, सिर्फ़ शरीर का मामला नहीं है !!

आप चाहें, तो खूब प्रोटीन और विटामिन से शरीर भर लें,
खूब व्यायाम कर लें और शरीर में ऑक्सीजन भर लें,
योगासन करें और शरीर को आड़ा तिरछा मोड़ लें,

मगर, संपूर्ण स्वास्थ्य सिर्फ  डायट, एक्सरसाइज़ और ऑक्सीजन से संबंधित नहीं है ..

चित्त, बुद्धि और भावना का क्या कीजिएगा ???

उपनिषदों ने बहुत पहले कह दिया था कि हमारे पांच शरीर होते हैं!

अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय शरीर  !!

इसे ऐसे समझिए,

कि जैसे किसी प्रश्न पत्र में 20-20 नंबर के पांच प्रश्न हैं और टोटल मार्क्स 100 हैं !
सिर्फ बाहरी शरीर(अन्नमय) पर ध्यान देना ऐसा ही है, कि आपने 20 मार्क्स का एक ही क्वेश्चन अटेंप्ट किया है !
जबकि,

प्राण-शरीर का प्रश्न भी 20 नंबर का है,

भाव-शरीर का प्रश्न भी 20 नंबर का है,

बुद्धि और दृष्टा भी उतने ही नंबर के प्रश्न हैँ  !

जिन्हें हम कभी अटेम्प्ट ही नहीं करते, लिहाजा स्वास्थ्य के एग्जाम में फेल हो जाते हैं !

वास्तविक स्वास्थ्य पांचों शरीरों का समेकित रूप है  !

पांचों क्वेश्चंस अटेम्प्ट करना ज़रूरी हैं!

हमारे शरीर में रोग दो तरह से होता है  -

कभी शरीर में होता है और चित्त तक जाता है!

और कभी चित्त में होता है तथा शरीर में परिलक्षित होता है !!
दोनो स्थितियों में चित्तदशा अंतिम निर्धारक है!

कोरोना में वे सभी विजेता सिद्ध हुए, जिनका शरीर चाहे कितना कमजोर रहा हो, मगर चित्त मजबूत था ,

वहीं वे सभी हारे रहे, जिन का चित्त कमजोर पड़ गया  !!
अस्पताल में अधिक मृत्यु होने के पीछे भी यही बुनियादी कारण है!!

अपनों के बीच होने से चित्त को मजबूती मिलती है , जो स्वास्थ्य का मुख्य आधार है!

जिस तरह, गलत खानपान से शरीर में टॉक्सिंस रिलीज होते हैं

उसी तरह, कमज़ोर भावनाओं और गलत विचारों से चित्त में भी टॉक्सिंस रिलीज होते हैं !!

कोशिका हमारे शरीर की सबसे छोटी इकाई है  .. और एक कोशिका (cell) को सिर्फ न्यूट्रिएंट्स और ऑक्सीजन ही नहीं चाहिए बल्कि अच्छे विचारों की कमांड भी चाहिए होती है !

कोशिका की अपनी एक क्वांटम फील्ड होती है जो हमारी भावना और विचार से प्रभावित होती है!

 हमारे भीतर उठा प्रत्येक भाव और विचार,, कोशिका में रजिस्टर हो जाता है..फिर यह मेमोरी, एक सेल से दूसरी सेल में ट्रांसफर होते जाती है !!

यह क्वांटम फील्ड ही हमारे स्वास्थ्य की अंतिम निर्धारक है !

जीवन मृत्यु का अंतिम फैसला भी कोशिका की इसी बुद्धिमत्ता से तय होता है !!
इसीलिए,

बाहरी शरीर का रखरखाव मात्र एकांगी उपाय है!

भावना और विचार का स्वस्थ होना, स्थूल शरीर( gross body )के स्वास्थ्य से कहीं अधिक अहमियत रखता है !

हमारे बहुत से स्वास्थ्य सजग मित्र, खूब कसरत के बावजूद भी मोटे और बीमार हैं !

अनुवांशिकी के अलावा इस मोटापे का एक बड़ा एक बड़ा कारण भय, असुरक्षा और संग्रहण की मनोवृति भी है !!

नब्बे फीसदी बीमारियां मनोदेहिक ( psychosomatic) होती हैं!

अगर चित्त में भय है, असुरक्षा है, भागमभाग है.. तो रनिंग और जिमिंग जैसे उपाय अधिक काम नहीं आने वाले,

क्योंकि वास्तविक इम्युनिटी, पांचों शरीरों से मिलकर विकसित होती है!

यह हमारी चेतना के पांचों कोशो का  सुव्यवस्थित तालमेल है !!

और यह इम्यूनिटी रातों-रात नहीं आती, यह सालों-साल के हमारे जीवन दर्शन से विकसित होती है !!

असुरक्षा, भय, अहंकार और महत्वाकांक्षा का ताना-बाना हमारे अवचेतन में बहुत जटिलता से गुंथा होता है!

अनुवांशिकी, चाइल्डहुड एक्सपिरिएंसेस , परिवेश, सामाजिक प्रभाव आदि से मिलकर अवचेतन का यह महाजाल निर्मित होता है !!

इसमें परिवर्तन आसान बात नहीं !!

इसे बदलने में छोटे-मोटे उपाय मसलन..योगा, मेडिटेशन, स्ट्रेस मैनेजमेंट आदि ना-काफी हैं!

मानसिकता परिवर्तन के लिए, हमारे जीवन-दर्शन (philosophy of life) में आमूल परिवर्तन लाजमी है !!
मगर यह परिवर्तन विरले ही कर पाते हैं !

 मैंने अपने अनुभव में अनेक ऐसे लोग देखे हैं जो terminal disease से पीड़ित थे, मृत्यु सर पर खड़ी थी किंतु किसी तरह बचकर लौट आए !

जब वे लौटे तो कहने लगे कि

"हमने मृत्यु को करीब से देख लिया, जीवन का कुछ भरोसा नहीं है, अब हम एकदम ही अलग तरह से जिएंगे !"

किंतु बाद में पाया कि साल भर बाद ही वे वापस पुराने ढर्रे पर जीने लग गए हैं !

 वही ईर्ष्या, राग द्वेष, अभिनिवेश फिर से लौट आए  !
आमूल परिवर्तन बहुत कम लोग कर पाते हैं!

हमारे एक मित्र थे जो खूब जिम जाते थे!  एक बार उन्हें पीलिया हुआ और बिगड़ गया !

एक महीने में उनका शरीर सिकुड़ गया और वह गहन डिप्रेशन में चले गए !

दस साल जिस शरीर को दिए थे, वह एक महीने में ढह गया !!

अंततः इसी डिप्रेशन से उनकी मृत्यु भी हो गई !

 अंतिम वक्त में उन्हें डिप्रेशन इस बात का अधिक था कि अति-अनुशासन के चलते वे जीवन में मजे नहीं कर पाए,

 सुस्वादु व्यंजन नहीं चखे,

मित्रों के साथ नाचे गाए नहीं, लंगोट भी पक्के रहे.. मगर इतनी तपस्या से बनाया शरीर एक महीने में ढह गया  !!

जब वे स्वस्थ थे तो मैं अक्सर उनसे मजाक में कहा करता था

"शरीर में ऑक्सीजन तो डाल दिए हो, चेतना में प्रेम डाले कि नहीं ??

"शरीर में प्रोटीन तो भर लिए हो, चित्त में आनंद भरे कि नहीं? "

 छाती तो विशाल कर लिए हो, हृदय विशाल किए कि नहीं ?"

क्योंकि अंत में यही बातें काम आती हैं...

जीवन को उसकी संपूर्णता में जी लेने में भी ,

परस्पर संबंधों में भी, और स्वास्थ्य की आखिरी जंग में भी जीवन-दर्शन निर्धारक होता है, जीवन चर्या नहीं !!

कोरोना काल से हम यह सबक सीख लें तो अभी देर नहीं हुई  है!

बाहरी शरीर के भीतर परिव्याप्त चेतना का महा-आकाश अब भी हमारी उड़ान के लिए प्रतीक्षारत है !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी करें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

function disabled

Old Post from Sanwariya