*🚩संविधान स्थापना दिवस पर जानना जरूरी है, समान नागरिक संहिता क्यों नहीं है?*
*26 जनवरी 2022*
azaadbharat.org
*🚩नवम्बर 1948 में संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने पर लम्बी बहस चली. बहस में इस्लामिक चिन्तक मोहम्मद इस्माईल, जेड एच लारी, बिहार के मुस्लिम सदस्य हुसैन इमाम, नजीरुद्दीन अहमद सहित अनेक मुस्लिम नेताओं ने भीमराव अम्बेडकर का विरोध किया था. इसके बाद हुए मतदान में डॉ० अम्बेडकर का समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव विजयी हुआ और संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी विधान लाया गया।*
*🚩अनुच्छेद-44 (समान नागरिक संहिता), अनुच्छेद-312 (भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा), अनुच्छेद-351 (हिंदी का प्रचार) जैसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद अभी तक पेंडिंग हैं। अनुच्छेद-51A (मौलिक कर्तव्य) को लोगों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है।*
*इसके बाद भी मुसलमानों के दबाव में समान नागरिक संहिता को लागू करने का विचार दफना दिया गया. मुस्लिम तुष्टिकरण बढ़ता गया और समान नागरिक संहिता की राह संकीर्ण होती गई. इसी विरोध और कट्टरता के चलते सन 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का जन्म हुआ. तबसे यह समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए शरीयत को संविधान और कानून से ऊपर बताता-मानता है।*
*🚩कुछ समय से देश में समान नागरिक संहिता की चर्चा बार-बार हो रही है, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पा रही है। इसी तरह हिंदू मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने की मांग भी अनसुनी बनी हुई है। छोटे-मोटे संगठन और एक्टिविस्ट धर्मांतरण के विरुद्ध कानून बनाने की भी मांग कर रहे हैं। भोजन उद्योग में हलाल मांस का दबाव बढ़ाने की संगठित गतिवधियों के विरुद्ध भी असंतोष बढ़ा है। शिक्षा अधिकार कानून में हिंदू-विरोधी पक्षपात पर भी काफी उद्वेलन है। आखिर इन मांगों पर सत्ताधारियों का क्या रुख है?*
*🚩भारतीय संविधान आदर्श नहीं है। संविधान के मुख्य निर्माता डॉ. अंबेदकर ने ही दो बार, वह भी संसद में, पूरी जिम्मेदारी से कहा था कि वे “इस संविधान को जला देना चाहते” हैं। प्रथम अवसर पर (2 सितंबर 1953) उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं इस संविधान को पसंद नहीं करता। यह किसी के काम का नहीं।’’ दूसरे अवसर पर (19 मार्च 1955) उन्होंने कहा, ‘‘जो मंदिर बनाया गया, उसपर देवताओं के बजाए राक्षसों ने कब्जा कर लिया।’’*
*🚩उसी संविधान की आज डॉ. अंबेदकर का नाम ले-लेकर आडंबरपूर्ण पूजा करवाना हास्यास्पद है। वैसे भी, संविधान राजनीतिक तंत्र चलाने का दस्तावेज है। देश उससे बहुत ऊँची वस्तु है। संविधान में बदलाव होते रहते हैं। यहाँ तो इसे मनमाने बदला गया है। जैसे, 42वें संशोधन (1976) द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’ व ‘सेक्यूलर’ जोड़कर बुनियादी रूप से विकृत किया गया। तब से यह केवल समाजवाद और सेक्यूलरवाद मानने वालों का संविधान है। ऐसी मतवादी तानाशाही थोपकर भिन्न विचार वाले नक्कू बना दिए गए। इसलिए तब से वामपंथी, इस्लामी और इस्लामपरस्त ही ‘संवैधानिक मूल्यों’ की अधिक दुहाई देते हैं। उन्हें मालूम है कि वे क्या बोल रहे हैं!*
*🚩समान नागरिक संहिता की चाह तो मूल संविधान में ही थी, लेकिन शासकों ने शुरू से इसे उपेक्षित किया। कई बार सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर भी कार्रवाई नहीं की। समान संहिता की मांग हिंदू मुद्दा नहीं, बल्कि सेक्युलर मांग है। यह मांग तो सेक्युलरवादियों को करनी चाहिए। धर्मांतरण रोकना भी कानूनी प्रतिबंध का विषय नहीं। धर्मांतरण कराने में मिशनरी रणनीति और कटिबद्धता ऐसी है कि चीन जैसा कठोर शासन भी महज कानून से इसे रोकने में विफल रहा है। धर्मांतरण रोकने के आसान रास्ते की आस छोड़नी चाहिए। इसका उपाय शिक्षा और वैचारिक युद्ध में है। उससे कतरा कर संगठित धर्मांतरणकारियों से पार पाना असंभव है।*
*🚩कुछ लोग जब-तब हिंदू राष्ट्र की बातें किया करते हैं, जबकि यथार्थवादी मांग यह होती कि हिंदुओं को दूसरे समुदायों जैसे बराबर अधिकार मिलें। दुर्भाग्यवश अधिकांश लोगों को इसकी चेतना नहीं। हालिया समय में संविधान के अनुच्छेद 25 से 31 की हिंदू-विरोधी व्याख्या स्थापित कर दी गई है। कई शैक्षिक, सांस्कृतिक, सामाजिक अधिकारों पर केवल गैर-हिंदुओं यानी अल्पसंख्यकों का एकाधिकार बना दिया गया है।*
*सरकार हिंदू शिक्षा संस्थान और मंदिरों पर मनचाहा हस्तक्षेप करती है और अपनी शर्तें लादती है। वह ऐसा गैर-हिंदू संस्थाओं पर नहीं करती। इसी तरह अल्पसंख्यकों को संवैधानिक उपचार पाने का दोहरा अधिकार है, जो हिंदुओं को नहीं है। हिंदू केवल नागरिक रूप में न्यायालय से कुछ मांग सकते हैं, जबकि अन्य नागरिक और अल्पसंख्यक, दोनों रूपों में संवैधानिक अधिकार रखते हैं। ऐसा अंधेर दुनिया के किसी लोकतंत्र में नहीं कि अल्पसंख्यक को ऐसे विशेषाधिकार हों जो अन्य को न मिलें।*
*🚩'सोशलिज्म’ और ‘सेक्यूलरिज्म’ की धारणाओं से हमारे संविधान निर्माता बखूबी परिचित थे। उन्होंने सोच-समझ कर, बल्कि सेक्यूलरिज्म पर विचार करके, इसे संविधान में कोई जगह नहीं दी। अतः 1976-78 ई. में कांग्रेस, कम्युनिस्ट और जनता पार्टी जिसमें जनसंघ (भाजपा का पूर्वरूप) शामिल था, सबने संविधान को भयंकर विकृत कर दिया। यहाँ वामपंथी-इस्लामी दबदबे का रास्ता साफ किया।*
*🚩नोट करें कि जब संविधान बना ही था, तब भी डॉ. अंबेदकर ने इसे गैर-सेक्यूलर, यानी धार्मिक भेद-भावकारी बताया था। इसीलिए आगे सभी के लिए ‘समान नागरिक संहिता’ बनाने की बात संविधान में लिखी गई थी।*
*लेकिन यह संविधान एक अधिक गंभीर तरह से हिन्दुओं के विरुद्ध पक्षपात ही नहीं करता, बल्कि इसने हिन्दुओं को विशेष खतरे में डालने का बाकायदा प्रबंध किया। संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता वाली धारा 25 में ‘प्रोपेगेशन ऑफ रिलीजन’, यानी अपना रिलीजन फैलाने का अधिकार भी दिया गया है, किन्तु ‘धर्म-रक्षा’ का अधिकार नहीं दिया! याद रहे, केवल क्रिश्चियनिटी और इस्लाम ही दूसरों को धर्मांतरित कराने का ‘धर्म-प्रचार’ करते हैं। संविधान सभा में भी ‘प्रोपेगेशन’ का क्रिश्चियन, इस्लामी अर्थ ही लिया गया था। जब इस नुक्ते पर बहस हो रही थी तो कहा गया कि इसे ‘क्रिश्चियन मित्रों’ का ध्यान रखते हुए स्वीकार कर लें, क्योंकि कई कांग्रेस नेता ‘प्रोपेगेशन’ वाला नुक्ता हटाना चाहते थे।*
*बाद में भी, इस पर स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को पत्र (17 अक्तूबर 1952) लिख कर साफ किया, “वी परमिट, बाई अवर कंस्टीच्यूशन, नॉट ओनली फ्रीडम ऑफ कांशेंस एंड बिलीफ बट आलसो प्रोजेलाइटिज्म।” यानी, धर्मांतरण कराना, जो केवल क्रिश्चियन और मुस्लिम कराते हैं। भारत में यह मुख्यतः हिन्दुओं का धर्मांतरण है, यह भी सभी नेता जानते थे। किन हथकंडों और प्रपंचों से धर्मांतरण कराया जाता है, यह भी वे बखूबी जानते थे!*
*अतः संविधान में हिन्दुओं को धर्म-रक्षा का अधिकार नहीं देना हिन्दुओं पर दोहरी चोट है! क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दू का धर्मांतरण कराना ‘मौलिक अधिकार’है, किन्तु ऐसे घोषित शिकारियों से हिन्दू अपनी धर्म-रक्षा कर सकें, इसका उन्हें कोई सामान्य अधिकार भी नहीं दिया गया। बेचारे अन्य कारण देकर या अवैध तरीकों से ही अपनी धर्म-रक्षा कर सकते हैं, जैसे- धोखा-धड़ी की गुहार लगाकर, रो-गाकर, या जिसे अवैध कहकर उन्हें दंडित किया जाएगा! झारखंड में ऐसे मुकदमे चल रहे हैं, जिसमें धोखे या जोर-जबरदस्ती धर्मांतरण कराने वाले मिशनरी, तबलीगी तो छुट्टा घूमते हैं, किन्तु उनका विरोध करने वाले हिन्दुओं को कोर्ट से जमानत भी नहीं मिलती! फिर भी, यहाँ हिन्दुओं को ही ‘सांप्रदायिक’, ‘असहिष्णु’, ‘बहुसंख्यकवादी’, आदि कह-कह कर लांछित किया जाता है।*
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*🚩वस्तुतः 42वें संशोधन के बाद संविधान के अनुच्छेद 25-31 का पूरा अर्थ हिन्दू-विरोधी कर डाला गया। तब से देश में दो प्रकार के नागरिक हैं: (1) अल्पसंख्यक, (2) गैर-अल्पसंख्यक। एक को डबल अधिकार, दूसरे को केवल सिंगल जो पहले वाले को भी है। इस प्रकार, एक विशेषाधिकार-संपन्न अल्पसंख्यक, तथा बाकी हीन गैर-अल्पसंख्यक ही सही संज्ञा है। इस थोपी गई हीनता के कारण ही कई हिन्दू संप्रदाय अपने को हिन्दुओं से अलग, और इसलिए अल्पसंख्यक कहलाने का प्रयास करते रहे हैं। इसके लिए उन्हें ही लांछित करने वाले संघ-भाजपाई अपने गिहरबान में झाँक कर देखें कि संविधान में ‘सेक्यूलर’ जोड़कर और खुद को गर्व से ‘सच्चा सेक्यूलर’ कहकर वास्तव में उन्होंने क्या विध्वंस किया है! उन्होंने हिन्दुओं को संवैधानिक रूप से हीन नागरिक बना देने में सक्रिय सहयोग किया। और अब उनके महान अबोध नेता इसी संविधान की जबरन पूजा करवा कर हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़क रहे हैं!*
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