जगन्नाथजी से जुड़े दस चमत्कार"
पहला चमत्कार :-
हवा के विपरीत लहराता ध्वज : श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित लाल ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है। ऐसा किस कारण होता है यह तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं लेकिन यह निश्चित ही आश्चर्यजनक बात है। यह भी आश्चर्य है कि प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है। ध्वज भी इतना भव्य है कि जब यह लहराता है तो इसे सब देखते ही रह जाते हैं। ध्वज पर शिव का चंद्र बना हुआ है।
दूसरा चमत्कार :-
गुंबद की छाया नहीं बनती : यह दुनिया का सबसे भव्य और ऊंचा मंदिर है। यह मंदिर 4 लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैला है और इसकी ऊंचाई लगभग 214 फुट है। मंदिर के पास खड़े रहकर इसका गुंबद देख पाना असंभव है। मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है। हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है। पुरी के मंदिर का यह भव्य रूप 7वीं सदी में निर्मित किया गया।
तीसरा चमत्कार :-
चमत्कारिक सुदर्शन चक्र : पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है।
चौथा चमत्कार :-
हवा की दिशा : सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है। अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है, लेकिन यहाँ हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है।
पांचवां चमत्कार :-
गुंबद के ऊपर नहीं उड़ते पक्षी : मंदिर के ऊपर गुंबद के आसपास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया। इसके ऊपर से विमान नहीं उड़ाया जा सकता। मंदिर के शिखर के पास पक्षी उड़ते नजर नहीं आते, जबकि देखा गया है कि भारत के अधिकतर मंदिरों के गुंबदों पर पक्षी बैठ जाते हैं या आसपास उड़ते हुए नजर आते हैं।
छठा चमत्कार :-
दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर : 500 रसोइए 300 सहयोगियों के साथ बनाते हैं भगवान जगन्नाथजी का प्रसाद। लगभग 20 लाख भक्त कर सकते हैं यहाँ भोजन। कहा जाता है कि मंदिर में प्रसाद कुछ हजार लोगों के लिए ही क्यों न बनाया गया हो लेकिन इससे लाखों लोगों का पेट भर सकता है। मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती। मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है अर्थात सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले पक जाता है। है न चमत्कार!
सातवां चमत्कार :-
समुद्र की ध्वनि : मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है। इसी तरह मंदिर के बाहर स्वर्ग द्वार है, जहाँ पर मोक्ष प्राप्ति के लिए शव जलाए जाते हैं लेकिन जब आप मंदिर से बाहर निकलेंगे तभी आपको लाशों के जलने की गंध महसूस होगी।
आठवां चमत्कार :-
रूप बदलती मूर्ति : यहाँ श्रीकृष्ण को जगन्नाथ कहते हैं। जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा विराजमान हैं। तीनों की ये मूर्तियां काष्ठ की बनी हुई हैं। यहाँ प्रत्येक 12 साल में एक बार होता है प्रतिमा का नव कलेवर। मूर्तियां नई जरूर बनाई जाती हैं लेकिन आकार और रूप वही रहता है। कहा जाता है कि उन मूर्तियों की पूजा नहीं होती, केवल दर्शनार्थ रखी गई हैं।
नौवां चमत्कार :-
विश्व की सबसे बड़ी रथयात्रा : आषाढ़ माह में भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं। यह रथयात्रा 5 किलोमीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही होती है। (रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है।) अपनी मौसी के घर भगवान 8 दिन रहते हैं। आषाढ़ शुक्ल दशमी को वापसी की यात्रा होती है। भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है। पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं जिसे छेरा पैररन कहते हैं।
दसवां चमत्कार :-
हनुमानजी करते हैं जगन्नाथ की समुद्र से रक्षा : माना जाता है कि 3 बार समुद्र ने जगन्नाथजी के मंदिर को तोड़ दिया था। कहते हैं कि महाप्रभु जगन्नाथ ने वीर मारुति (हनुमानजी) को यहाँ समुद्र को नियंत्रित करने हेतु नियुक्त किया था, परंतु जब-तब हनुमान भी जगन्नाथ-बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे। वे प्रभु के दर्शन के लिए नगर में प्रवेश कर जाते थे, ऐसे में समुद्र भी उनके पीछे नगर में प्रवेश कर जाता था। केसरीनंदन हनुमानजी की इस आदत से परेशान होकर जगन्नाथ महाप्रभु ने हनुमानजी को यहाँ स्वर्ण बेड़ी से आबद्ध कर दिया। यहाँ जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। भक्त लोग बेड़ी में जकड़े हनुमानजी के दर्शन करने के लिए आते हैं।
भगवान कृष्ण और भाई बलराम दोनों भी माता यशोदा से मुख से अपनी लीलाओं को
सुनने लगे। अपनी शैतानियों और क्रियाओं को सुनते-सुनते उनके बाल खड़े होने
लगे, आश्चर्य की वजह से आंखें बड़ी हो गईं और मुंह खुला रह गया। वहीं, खुद
सुभद्रा भी इतनी मंत्रमुग्ध हो गईं कि प्रेम भाव में पिघलने लगीं। यही कारण
है कि जगन्नाथ मंदिर में उनका कद सबसे छोटा है। सभी कृष्ण जी लीलाओं को
सुन रहे थे कि इस बीच यहां नारद मुनि आ गए।
नारद जी सबके हाव-भाव देखने लगे ही थे कि सबको अहसास हुआ कि कोई आ गया है।
इस वजह से कृष्ण लीला का पाठ यहीं रुक गया। नारद जी ने कृष्ण जी के उस मन
को मोह लेने वाले अवतार को देखकर कहा कि 'वाह प्रभु, आप कितने सुन्दर लग
रहे हैं। आप इस रूप में अवतार कब लेंगे?” उस वक्त कृष्ण जी ने कहा कि वह
कलियुग में ऐसा अवतार लेगें।
वादे के अनुसार कलियुग में श्री कृष्ण ने राजा इंद्रद्युम्न के सपने में
आए और उनसे कहा कि वह पुरी के दरिया किनारे एक पेड़ के तने में उनका विग्रह
बनवाएं और बाद में उसे मंदिर में स्थापित करा दें। श्रीकृष्ण के
आदेशानुसार राजा ने इस काम के लिए काबिल बढ़ई की तलाश शुरू की। कुछ दिनों
में एक बूढ़ा ब्राह्मण उन्हें मिला और इस विग्रह को बनाने की इच्छा जाहिर
की। लेकिन इस ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह इस विग्रह को
बंद कमरे में ही बनाएगा और उसके काम करते समय कोई भी कमरे का दरवाज़ा नहीं
खोलेगा नहीं तो वह काम अधूरा छोड़ कर चला जाएगा।
शुरुआत में काम की आवाज़ आई लेकिन कुछ दिनों बाद उस कमरे से आवाज़ आना बंद
हो गई। राजा सोच में पड़ गया कि वह दरवाजा खोलकर एक बार देखे या नहीं।
कहीं उस बूढ़े ब्राह्मण को कुछ हो ना गया हो। इस चिंता में राजा ने एक दिन
उस कमरे का दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़ा खुलते ही उसे सामने अधूरा विग्रह
मिला और ब्राह्मण गायब था।। तब उसे अहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं
बल्कि खुद विश्वकर्मा थे। शर्त के खिलाफ जाकर दरवाज़ा खोलने से वह चले गए।
उस वक्त नारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से कहा कि जिस प्रकार भगवान ने
सपने में आकर इस विग्रह को बनाने की बात कही ठीक उसी प्रकार इसे अधूरा रखने
के लिए भी द्वार खुलवा लिया। राजा ने उन अधूरी मूरतों को ही मंदिर में
स्थापित करवा दिया। यही कारण है कि जगन्नाथ पुरी के मंदिर में कोई पत्थर या
फिर अन्य धातु की मूर्ति नहीं बल्कि पेड़ के तने को इस्तेमाल करके बनाई गई
मूरत की पूजा की जाती है।
इस मंदिर के गर्भ गृह में श्रीकृष्ण, सुभद्रा एवं बलभद्र (बलराम) की
मूर्ति विराजमान है। कहा जाता है कि माता सुभद्रा को अपने मायके द्वारिका
से बहुत प्रेम था इसलिए उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण,
बलराम और सुभद्रा जी ने अलग रथों में बैठकर द्वारिका का भ्रमण किया था। तब
से आज तक पुरी में हर वर्ष रथयात्रा निकाली जाती है।
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