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रविवार, 1 जनवरी 2023

   प्रेरक संस्कृत श्लोक विद्यार्थियों के लिए

  प्रेरक संस्कृत श्लोक विद्यार्थियों के लिए





sanskrit shlokas: संस्कृत कभी हमारी संस्कृति की मूल और वाहक भाषा रही है, जिसमें हमारे पूर्वजों ने ,हमारे ऋषि-मुनियों ने तथा तत्कालीन समाज के प्रबुद्ध व्यक्तियों ने ज्ञान के सूत्रों को श्लोक सुभाषित और अन्य रूपों में संग्रहित किया है। हमारे धर्म ग्रंथ असंख्य जीवन उपयोगी सूत्रों एवं गूढ़ दर्शन को अपने आप में समेटे हुए तथ्यों से भरे-पड़े हैं

इसी अनमोल खजाने से हमने आपके लिए कुछ बेहद अनमोल मोतियों को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। वैसे तो यह तमाम सूत्र जनसाधारण के जीवन पर 100% सटीक बैठती हैं, उपयोगी हैं। लेकिन विद्यार्थी जीवन जिसे हम मनुष्य जीवन का स्वर्णिम द्वार कह सकते हैं, में यदि हमें इन सूत्रों की समझ हो जाए तो हम बतौर एक सफल नागरिक अपने जीवन से परिवार समाज देश तथा विश्व का भला कर पाएंगे आगे पढ़िए गूढ़ तथ्यों से भरपूर संस्कृत श्लोकों को

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।


अर्थात् :जो व्यक्ति अभिवादन शील एवं विनम्र है तथा अपने से बड़ों का सम्मान करता है नित्य प्रतिदिन वृद्धजनों की सेवा करता है.उसे इस सेवा के फलस्वरूप जो आशीर्वाद प्राप्त होता है, उससे उसके आयु विद्या कीर्ति और बल में वृद्धि होती है। ये श्लोक हमारी संस्कृति की मूल अवधारणा का उद्घोष कर रही है जिसमें (भारतीय संस्कृति में ) बड़े बुजुर्गों की सेवा को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।

क्षणशः कणशः चैव विद्यामर्थं साधयेत्
क्षणत्यागे कुतो विद्या कण त्यागे कुतो धनम् 

अर्थात् :एक एक क्षण का सदुपयोग कर विद्या प्राप्त करनी चाहिए तथा एक एक कण को महत्वपूर्ण समझ कर के धन संचय करना चाहिए। क्षण के महत्व को बिना समझे उसे गंवाने वाले को विद्या कहां प्राप्त होगी ? ठीक उसी प्रकार जो कण(धन का अत्यंत छोटा सा हिस्सा) के महत्व को नहीं समझेगा उसे धनवान बनने का सुयोग नहीं प्राप्त हो सकता। एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो विद्याध्ययन की अभिलाषा रखता हो, को प्रत्येक क्षण (समय) का उपयोग करना चाहिए तथा धनवान बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को प्रत्येक कण को महत्वपूर्ण समझ कर इसका संग्रह करना चाहिए

 

Sanskrit Shlokas विद्यार्थियों के लिए-

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति 

अर्थात् :मनुष्यों का आलस्य ही उसका सबसे बड़ा शत्रु है तथा परिश्रम जैसा कोई दूसरा मनुष्य का अनन्य मित्र नहीं है परिश्रम करने वाला मनुष्य कभी भी दुःख नहीं भोगता, दुखी नहीं होता

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यथा ह्येकेन चक्रेण रथस्य गतिर्भवेत्
एवं परुषकारेण विना दैवं सिद्ध्यति 

अर्थात् :जिस प्रकार एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है, उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है अतः भाग्य के भरोसे सब कुछ छोड़कर मत बैठिये लक्ष्य की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करते रहिये

पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं धनम्
कार्यकाले समुत्तपन्ने सा विद्या तद्धनं 

अर्थात् :पुस्तक में रखी विद्या ज्ञान की बातें तथा दूसरे के हाथ में गया धन ये दोनों जब बहुत आवश्यकता हो जरूरत हो, उस वक्त काम नहीं आता. अतः एक जागरूक व्यक्ति को इस बात को हमेशा ध्यान में रख कर ही आचरण करना चाहिए।

उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति,कार्याणि मनोरथै:
हि सुप्तस्य सिंहस्य,प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥

अर्थात् :जैसे सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं प्रवेश कर के उसकी क्षुधातुष्टि नहीं करता उसी प्रकार सारे अभीष्ट कार्य उद्यम अर्थात प्रयत्न करने से ही पूर्ण होते हैं कि उन्हें संपन्न कर लेने की इच्छा मात्रा से मनोरथ मात्र से

सहसा विदधीत क्रियामविवेकः परमापदां पदम्
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः 

अर्थात् :अचानक आवेश में कर बिना सोच विचार किये कोई कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है। इसके उलट जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है, उसके इसी गुण की वजह से माता लक्ष्मी का आशीर्वाद उन्हें स्वतः प्राप्त हो जाता है अर्थात धन सम्पदा स्वतः उनकी ओर आकृष्ट होने लगती है

सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम्
सुखार्थी वा त्यजेत विद्या विद्यार्थी त्यजेत् सुखम् 


अर्थात् :-सुख की कामना करने वालों को विद्या कहां प्राप्त हो सकती है ? और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख नहीं मिल सकता. अतः सुख की लालसा रखने वालों को विद्या अध्ययन को त्याग देना चाहिए, तथा जो वास्तव में विद्या प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें सुख का परित्याग कर देना चाहिए।

Sanskrit Shlokas for Better Life.

प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः
तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता 

अर्थात् :प्रिय अर्थात मधुर वचन से सभी जीवों को प्रसन्नता होती है,फिर मधुर वचन बोलने में कंजूसी किस लिए ? अतएव हमें सदा सर्वदा मधुर वचन ही बोलना चाहिए।

अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः

अर्थात् :बिना बुलाए भी जाना, बिना किसी के पूछे बहुत बोलना, विश्वास नहीं करने लायक व्यक्तियों पर विश्वास करना.. ये सभी मूर्ख और अधम लोगों के लक्षण हैं। अतः अपने जीवन में हमें इन चीजों का खास ख्याल रखना चाहिए

रूप यौवन सम्पन्ना विशाल कुल सम्भवा: l
विद्याहीना शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ll

अर्थात् :रूप और यौवन से सम्पन्न तथा उच्च कुलीन परिवार में उत्पन्न व्यक्ति भी विद्याहीन होने पर सुगंध रहित पलाश के फूल की भाँति ही शोभा नहीं देते। विद्या अध्ययन करने में ही मनुष्य जीवन की सफलता है।

नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत्
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम्

अर्थात् :विद्या के सामान कोई बंधु नहीं , विद्या जैसा कोई मित्र नहीं, विद्या धन के जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं। अतः विद्या इस लोक में हमारे लिए सकल कल्याण की वाहक है, अतएव विद्यार्जन जरूर करनी चाहिए

विना परवादेन रमते दुर्जनो जनः
काकः सर्वरसान् भुंक्ते विनाऽमध्यं तृप्यति

अर्थात् :-दुर्जन व्यक्तियों को परनिंदा अर्थात दूसरे व्यक्ति की निंदा किए बिना ठीक उसी प्रकार चैन नहीं आता आनंद नहीं आता है, जैसे कि कौआ सभी प्रकार के रसों का आनंद लेने के बाद भी बिना गंदगी (मैला) खाए तृप्त नहीं होता.अतः एक बुद्धिमान व्यक्ति को परनिंदा से बचना चाहिए

sanskrit shlokas for success

षड् दोषा: पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता॥

अर्थात् :-इस संसार में सम्पन्न होने अथवा उन्नति करने की प्रबल इच्छा रखने वाले मनुष्यों को इन छह आदतों का परित्याग कर देना चाहिए (अधिक) नींद लेना अथवा अधिक सोना, जड़ता, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता अर्थात कार्यों को टालने की प्रवृत्ति. अन्यथा ये आदतें व्यक्ति के उन्नति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बनकर उसकी कामना को कभी भी पूर्ण नहीं होने देंगे

विद्यां ददाति विनयं,विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति,धनात् धर्मं ततः सुखम्॥

अर्थात् :-विद्या विद्या विनय देती है अर्थात विद्या से विनय प्राप्त होता है। विनय अथवा विनयशीलता से हमें पात्रता (लक्ष्य को प्राप्त करने की योग्यता) प्राप्त होती है। पात्रता से धन प्राप्त होता है और धन से धर्म और सुख की प्राप्ति होती है। दूसरे प्रकार से अगर हम कहें तो धन कभी भी अपात्र के हाथों में एकाएक नहीं जाता और अगर भी जाए तो नहीं रुक सकता क्योंकि धन की प्राप्ति के लिए पात्र(विनयशील) होना एक आवश्यक शर्त है। विनय शील होना ही धन प्राप्ति की पात्रता है और विनय शील होने के लिए मनुष्य को विद्यावान होना भी आवश्यक है।

sanskrit shlokas

परोपि हितवान् बन्धुर्बन्धु अपि अहितः पर:
अहितो देहजो व्याधि हितमारण्यमौषधम 

अर्थात् :-अगर कोई अपिरिचित व्यक्ति भी हमारी मदद करें, हमारा हित करें तो हमें उसे अपने परिवार के सदस्य की तरह सम्मान करना चाहिए मान देना चाहिए। तथा यदि अपने परिवार का सदस्य भी हमारा अहित करें तो उसे अपरिचित व्यक्ति की तरह देखना चाहिए उसे महत्व नहीं देना ही उचित है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि जब हमारे शरीर में कोई व्याधि लग जाती है कोई रोग हो जाता है तो वैन की औषधि ही हमारे लिए हितकर होतीं हैं
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हितोपदेश

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः 
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते हि धनं विद्याविहीनः पशुः

अर्थात् :विद्या मनुष्य का सबसे गुप्त एवं विशिष्ट धन है। वह भोग देनेवाली, यश प्रदान करने वाली और सुखकारक है। विद्या गुरुओं की भी गुरु है। विदेश में विद्या अपने बंधुजनों के समान ही है। विद्या ही परम देवता है, राजा भी विद्या की ही पूजा करता है। अतः जिसके पास यह विद्याधन नहीं है वह मनुष्य पशु के ही समान है।

sanskrit shlokas

द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दॄढां शिलाम्
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं अतपस्विनम् 

अर्थात् :-दो प्रकार के लोगों की गर्दन में एक बड़ी शिला(पत्थर) बांधकर उनको गहरे जल में प्रवाहित कर देना चाहिए। पहला जो धनवान होकर भी दान नहीं करता तथा दूसरा जो निर्धन होकर भी कठिन परिश्रम करने से भागता हो।

यहां चीजों को नकारात्मक ढंग से लेने की आवश्यकता नहीं है। इस सुभाषित का मतलब इतना सा है कि एक निर्धन व्यक्ति को, धन हीन व्यक्ति को कठोर श्रम करना चाहिए ताकि उसे धन की प्राप्ति हो, जो कि जीवन जीने के लिए बहुत आवश्यक तत्व है, तथा धनवान व्यक्ति जब दानशील होगा तो उससे समाज में जो कमजोर लोग हैं उनकी सहायता भी होगी और धनवान व्यक्ति की ख्याति भी बढ़ेगी।

सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात ब्रूयात सत्यं अप्रियम।
प्रियं नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:

अर्थात् :हमें सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए परन्तु अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिये। प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए, यही धर्म है। इस श्लोक(सुभाषित) का अर्थ यही है कि हमारा व्यवहार ही हमारे सामाजिक जीवन में, हमारे पारस्परिक संबंधों में काफी अहम भूमिका निभाता है। यदि हमारा स्वयं का रवैया किसी के प्रति अथवा किसी और का रवैया हमारे प्रति घृणायुक्त और दोषपरक होगा, तो इससे हमारे बीच शत्रु भाव जायेगा। यदि दृष्टि एवं व्यवहार प्रेम मय होगा तो संबंध सुंदर सजीव और मित्रवत हो जाएगा.अर्थात व्यवहार ही हमारे सामाजिक संबंधों का मूल है।

sanskrit shlokas for education

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो पाठितः
शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा

अर्थात् :-जो माता-पिता अपने संतान की शिक्षा का प्रबंध नहीं करते उन्हें नहीं पढ़ाते हैं। वह अपने संतानों के लिए शत्रु के समान हैं, क्योंकि उनकी विद्याहीन संतान को समाज में यथोचित आदर नहीं मिलेगा जिस प्रकार हंसों के बीच में बगुले का सत्कार नहीं होता

पंचांग' भारतीयों द्वारा माना जाने वाला वैज्ञानिक कैलेंडर है।

'पंचांग' भारतीयों द्वारा माना जाने वाला वैज्ञानिक कैलेंडर है। 
पंचांग (पंच + अंग = पांच अंग)

पञ्चाङ्ग

भारत में ५ प्रकार से दिन लिखते हैं।

अतः यहां की काल गणना को पञ्चाङ्ग (५ अंग) कहते हैं।

5 अंग हैं-

१. तिथि– चन्द्र का प्रकाश १५ दिन तक बढ़ता है। यह शुक्ल पक्ष है जिसमें १ से १५ तक तिथि है।

      कृष्ण पक्ष में १५ दिनों तक चन्द्र का प्रकाश घतता है। इसमें भी १ से १५ तिथि हैं।

२. वार– ७ वार का वही क्रम ग्रहों के नाम पर।

३. नक्षत्र– चन्द्र २७.३ दिन में पृथ्वी का चक्कर लगाता है। १ दिन में आकाश के जितने भाग में चन्द्र रहता है, वह उसका नक्षत्र है। ३६० अंश के वृत्त को २७ भाग में बांटने पर १  नक्षत्र १३ १/३ अंश का है। चन्द्र जिस नक्षत्र में रहता है, वह उस दिन का नक्षत्र हुआ।

४. योग– चन्द्र तथा सूर्य की गति का योग कर नक्षत्र के बराबर दूरी तय करने का समय योग है। २७ योग २५ दिन में पूरा होते हैं।

५. करण– तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं।

तिथि

१. तिथि—चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना है। इसका चन्द्र और सूर्य के अन्तरांशों के मान १२ अंशों का होने से एक होती है। जब अन्तर १८० अंशों का होता है उस समय को रिणमा कहते हैं जब यह अन्तर ० (शून्य) या ३६० अंशों का होता है। उस समय को अमावस कहते हैं। एक मास में ३० तिथि कहते हैं। १५ तिथि कृष्ण पक्ष व १५ तिथि शुक्ल पक्ष में १, प्रतिपदा, २ द्वितीया, ३ तृतीया, ४ चतुर्थी, ५ पंचमी, ६ षष्ठी, ७ सप्तमी, ८ अष्टमी, ९ नवमी, १० दसमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, १३ त्रयोदशी, १४ चतुर्दशी, १५ पूर्णिमा, यह शुक्ल पक्ष कहलाता है। कृष्ण पक्ष में १४ तिथि उपरोक्त नाम वाली ही होती है परन्तु अन्तिम तिथि पूर्णिमा के स्थान पर इसे अमावस्या नाम से जाना जाता है। प्रत्येक तिथि के स्वामी अलग-अलग होते हैं, जिनका क्रम निम्न प्रकार है—

तिथि प्रतिपदा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी दसमी एकादशी द्वादशी त्रयोदशी चतुर्दशी पूर्णिमाचन्द्र
स्वामी अग्नि ब्रह्मा गणेश गौरी सर्प कार्तिकेय सूर्य शिव दुर्गा यम विषवेदेव विष्णु कामदेव शिव अमावस पित्तर
तिथियों में शुभ शुभत्व के अवसर पर स्वामियों का विचार किया जाता है। तिथियों की पांच संज्ञा होती है।

(१) नंदा (२) भद्रा (३) जया (४) रिक्ता (५)पूर्णा
१-६-११ २-७-१२ ३-८-१३ ४-९-१४ ५-१०-१५-३०,अ .
वार व तिथि मेल से बनने वाले सिद्ध योग। तिथि व वार का संयोग होने से सिद्ध योग बनता है। इनमें किया गया कार्यसिद्धि प्रदायक होता है।

रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
…………. …………. ३-८-११ जया २-७-१२ भद्रा ५-१०-१५ पूर्णा १-६-११ नंदा ४-९-१४ रिक्ता
मृत्युयोग—तिथि वार के संयोग से यह मृत्यु योग बनता है। इनमें किया गया कार्य हानि देता है।

रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
नंदा १-६-११ भद्रा २-७-१२ नंदा १-६-११ जया ३-८-१३ रिक्ता ४-९-१४ भद्रा २-७-१२ पूर्णा ५-१०-१५
१. शुद्ध तिथि—जिस तिथि में एक बार सूर्योदय होता है उसे शुद्ध तिथि कहते हैं।

२. क्षय तिथि— जिस तिथि में सूर्योदय नहीं हो उसे क्षय तिथि कहते हैं।

३. अधिक तिथि— जिस तिथि में दो बार सूर्योदय होता है अधिक तिथि (वृद्धि तिथि) कहते हैं।

४. गण्डात तिथि—(५-१०-१५) पूर्णा तिथि समाप्ति व (१-६-११) नंदा तिथि के प्रारम्भ समय (सन्धि) को गण्डांत तिथि कहते हैं। इन दोनों तिथि के २४-२४ मिनट (कुल ४८ मिनट) को गण्डांत समय रहता है।

५. पक्षरन्ध्र तिथि—४-६-८-९-१२-१४ यह तिथियाँ पक्षरन्ध्र कहलाती है।

६. दग्धा, विष और हुताशन संज्ञक तिथियाँ—इन नाम अनुसार तिथियों में काम करने से विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।-चक्र नीचे है।

वर रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
दग्ता संज्ञक १२ ११ ५ ३ ६ ८ ९
विष संज्ञक ४ ६ ७ २ ८ ९ ७
हुताशन संज्ञक १२ ६ ७ ८ ९ १० ११
७. मास शून्य तिथियों—चैत्र में दोनों पक्षों की अष्टमी व नवमी, बैशाख में दोनों पक्षों की द्वादशी, ज्येष्ठ में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी व शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी, आषाढ में कृष्ण की षष्ठी व शुक्ल की सप्तमी, श्रावण में दोनों पक्षों की द्वितीया व तृतीया, भाद्रपद के दोनों पक्षों की प्रतिपदा व द्वितीया, आश्विन में दोनों पक्षों की दशमी व एकादशी, कार्तिकेय में कृष्ण की पंचमी व शुक्ला की चतुर्दशी, माघ में कृष्ण की पंचमी व शुक्ला की षष्ठी, फाल्गुन में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी और शुक्ल पक्ष की तृतीया यह मास शून्य तिथि होती है। मास शून्य तिथियों में कार्य करने से सफलता प्राप्त नहीं होती।

वार

एक सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक की कलावधि को वार कहते हैं। वार सात होते हैं। १. रविवार, २. सोमवार, ३. मंगलवार, ४. बुद्धवार, ५. गुरुवार, ६ शुक्रवार, ७. शनिवार सोम, बुध, गुरु, व शुक्र की शुभ और रवि, मंगल, शनिवार की अशुभ संज्ञा होती है। रविवार को स्थिर, सोमवार को चर, मंगल की उग्र, बुध की मिश्र, गुरुवार की लघु, शुक्र की मृदु और शनिवार की तीक्ष्ण संज्ञा होती है। जिस ग्रह के बार में जो कार्य करने के लिए बताया है। वह कार्य अन्य वारों में अभीष्ट वार की काल होरा भी करना चाहिए। जो कभी आगे बताऐंगे।

नक्षत्र

नक्षत्र ताराओं के समूह को नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र २७ होते हैं। सूक्ष्मता से जानने के लिए प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। ९ चरणों के मिलने से एक राशि बनती है। २७ नक्षत्रों के नाम—१. अश्विनी २. भरणी ३. कृत्तिका ४. रोहिणी ५. मृगशिरा ६. आद्र्रा ७. पुनर्वसु ८. पुष्य ९. अश्लेषा १०. मघा ११. पूर्वाफाल्गुनी १२. उत्तराफाल्गुनी १३. हस्त १४. चित्रा १५. स्वाती १६. विशाखा १७. अनुराधा १८. ज्येष्ठा १९. मूल २०. पूर्वाषाढ २१. उतराषाढ २२. श्रवण २३. घ्िनाष्ठा २४. शतभिषा २५. पूर्वाभद्रपद २६. उत्तराभाद्रपद २७. रेवती।

विशेष—२८ वां नक्षत्र अभिजित माना गया है। उत्तराषाढ़ की अंतिम १५ घटियाँ और श्रवण के प्रारम्भ की चार घटियाँ मिलाकर कुल १९ घटियाँ के मान वाला अभिजित नक्षत्र होता है। यह समस्त कार्यों में शुभ माना है।

नक्षत्रों के स्वामी २८ ही होते हैं। नक्षत्रों का फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए।

अश्विनी भरणी कार्तिका रोहिणी मृगशिरा आद्र्रा पुनर्वसु पुष्य अश्लेषा मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा
अश्विनी कुमार काल अग्नि ब्रह्मा चन्द्रमा रुद्र अदिति बहस्पति सर्प थ्पतर भग अर्यमा सूर्य विश्वकर्मा
स्वाती विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूल पूर्वाषाढ़ उत्तराषाढ़ श्रावण घनिष्ठा शतभिषा पूर्वाभद्रपद उत्तराभाद्रपद रेवती अभिजित
पवन शुक्रारिन मित्र इन्द्र निऋति जल विश्वदेव विष्णु वसु वरुण अजिकपाद अहिर्बुध्न्य पूषा ब्रह्मा
नक्षत्र संज्ञा

1). स्थिर संज्ञक— रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर या ध्रुव संज्ञक है।

2). चल संज्ञक— पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्रों की चल या चर या चंचल संज्ञक है।

3). उग्र संज्ञक— भरणी, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों की उग्र (क्रूर) संज्ञक है।

4). मिश्र संज्ञक— कृत्तिका, विशाखा नक्षत्रों की मिश्र या साधारण संज्ञक हैं।

5). लघु संज्ञक— अश्विनी, पुष्य, हस्त, अभिजित नक्षत्र लघु या क्षिप्र संज्ञक हैं।

6). मृदु संज्ञक— मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा और रेवती की मृदु या मैत्र संज्ञक हैं।

7). तीक्ष्ण संज्ञक— आर्दा, अश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्रों की तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक हैं।

8). अधोमुख संज्ञक— भरणी, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, मूल, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभद्रपद नक्षत्र की अधोमुख संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों का प्रयोग खनन विधि के लिए किया जाता है ।

9).ऊर्ध्वमुख संज्ञक—आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र ऊर्ध्वमुख संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों का प्रयोग शिलान्यास करने में किया जाता है ।

10). तिर्यङ्मुख संज्ञक— अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, नक्षत्र तिर्यडं मुख संज्ञक हैं।

11). पंचक संज्ञक— घनिष्ठा के तीसरा चौथा चरण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्रों की पंचक संज्ञक हैं।

12). मूल संज्ञक— अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, रेवती नक्षत्र मूल संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों में बालक उत्पन्न होता है तो लगभग २७ दिन पश्चात् जब पुन: वही नक्षत्र आता है,

उसी दिन शान्ति करायी जाती है। इनमें ज्येष्ठा और गण्डांत मूल संज्ञक तथा अश्लेषा सर्प मूल संज्ञक हैं।

अन्धलोचन संज्ञक— रोहिणी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी विशाखा, पूर्वाषाढ़, घनिष्ठा, रेवती नक्षत्र अन्धलोचन संज्ञक हैं। इसमें चोरी हुई वस्तु शीघ्र मिलती हैं। वस्तु पूर्व दिशा की तरफ जाती है।

मन्दलोचन संज्ञक—अश्विनी, मृगशिरा, अश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ और शतभिषा नक्षत्र मंदलोचन या मंदाक्ष लोचन संज्ञक हैं। एक मास में चोरी हुई वस्तु प्रयत्न करने पर मिलती है। वस्तु पश्चिम दिशा की तरफ जाती है।

मध्यलोचन संज्ञक— भरणी, आद्र्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र मध्यलोचन या मध्यांक्ष लोचन संज्ञक हैं। इनमें चोरी हुई वस्तु का पता चलने पर भी मिलती नहीं। वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है।

सुलोचन संज्ञक—कृत्तिका, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र सुलोचन या स्वाक्ष लोचन संज्ञक है। इनमें चोरी हुई वस्तु कभी नहीं मिलती तथा वस्तु उत्तर दिशा में जाती है।

दग्ध संज्ञक—वार और नक्षत्र के मेल से बनता है, इनमें कोई शुभ कार्य प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। रविवार में भरणी, सोमवार में चित्रा, मंगलवार में उत्तराषाढ़, बुधवार में घनिष्ठा, वृहस्पतिवार में उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार में ज्येष्ठा एवं शनिवार में रेवती नक्षत्र होने से दग्ध संज्ञक होते हैं।

मास शून्य संज्ञक—चैत्र में रोहिणी और अश्विनी, वैशाख में चित्रा और स्वाति, ज्येष्ठ में पुष्य और उत्तराषाढ़, आषाढ़ में पूर्वाफाल्गुनी और घनिष्ठा, श्रवण में उत्तराषाढ़ और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, आश्विन मेंपूर्वाभाद्रपद, कार्तिक में कृत्तिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौष में अश्विनी, आद्र्रा और हस्त, माघ में मूल श्रवण, फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा नक्षत्र मास शून्य नक्षत्र हैं।

विशेष—कार्यों की सिद्धि में नक्षत्रों की संज्ञाओं का फल प्राप्त होता है।

योग

सूर्य चन्द्रमा के संयोग से योग बनता है, इसे ही योग कहते हैं। योग २७ होते हैं।

२७ योगों के नाम—१. विष्कुम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान ४. सौभाग्य ५. शोभन ६. अतिगण्ड ७. सुकर्मा

८.घृति९.शूल १०. गण्ड ११. वृद्धि १२. ध्रव १३. व्याघात १४. हर्षल १५. वङ्का १६. सिद्धि १७. व्यतीपात

१८.वरीयान१९.परिधि २०. शिव २१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल २५. ब्रह्म २६. ऐन्द्र २७. वैघृति।

योगों के स्वामी—विष्कुम्भ का स्वामी यम, प्रीति का विष्णु, आयुष्मान का चन्द्रमा, सौभाग्य का ब्रह्मा, शोभन का वृहस्पति, अतिगण्ड का चन्द्रमा, सुकर्मा का इन्द्र, घुति का जल, शूल का सर्प, गण्ड का अग्नि, वृद्धि का सूर्य, ध्रुव का भूमि, व्याघात का वायु, हर्षल का भंग, वङ्का का वरुण, सिद्धि का गणेश, व्यतीपात का रुद्र, वरीयान का कुबेर, परिधि का विश्वकर्मा, शिव का मित्र, सिद्ध का कार्तिकेय, साध्य का सावित्री, शुभ का लक्ष्मी, शुक्ल का पार्वती, ब्रह्मा का अश्विनी कुमार, ऐन्द्र का पित्तर, वैघृति की दिति हैं।

योगों का अशुभ समय—योगों का कुछ समय शुभ कार्य का प्रारम्भ करने के लिए र्विजत किया है। इन र्विजत समय में कार्य आरम्भ किया जाए तो कार्यों में बाधाएं आती हैं अत: छोड़कर ही कार्य प्रारम्भ करे।

विष्कुम्भयोगकीप्रथम३घण्टे, परिधि योग का पूर्वाद्र्ध, उत्तराद्र्ध शुभ, शूल योग की प्रथम २ घण्टे ४८ मिनट, गण्ड और अतिगण्ड की २ घण्टे २४ मिनट, व्याघात योग की ३ घण्टे १२ मिनट, हर्षल और वङ्का योग के ३ घण्टे ३६ मिनट, व्यतीपात और वैधृति योग सम्पूर्ण शुभ कार्यों में त्याज्य हैं। इन योगों के रहते इनमें इस समय को छोड़कर ही कार्य करें।

करण

तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। करणों के नाम—१. बव

२.बालव ३.कौलव ४.तैतिल ५.गर ६.वणिज्य ७.विष्टी (भद्रा) ८.शकुनि ९.चतुष्पाद १०.नाग ११.किंस्तुघन

चरसंज्ञककरण—बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज्य, विष्टी।

स्थिरसंज्ञक करण—शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुघन ।

करणों के स्वामी—बव का इन्द्र, बालव का ब्रह्मा, कौलव का मित्र, तैतिल का सूर्य, गर का पृथ्वी, वणिज्य का लक्ष्मी, विष्टी का यम, शकुनि का कलि, चतुष्पाद का रुद्र, नाग का सर्प, किंस्तुघन का वायु स्वामी होते हैं।

भद्रा : विष्टी करण का नाम ही भद्रा है, प्रत्येक पंचांग में भद्रा के आरम्भ और समाप्ति का समय दिया रहता है। भद्रा में प्रत्येक शुभ कार्य करना र्विजत है। भद्रा का वास भूमि, स्वर्ग व पाताल में होता है।

सिंह-वृश्चिक-कुम्भ-मीन राशिस्थ चन्द्रमा के होने पर भद्रावास भूमि पर होता है। मृत्यु दाता होता है। मेष-वृष-मिथुन-कर्क राशिस्थ चन्द्रमा के रहने पर स्वर्ग लोक में, कन्या-तुला-धनु-मकर राशिस्थ चन्द्रमा के रहने पर भद्रा वास पाताल में होता है। यह दोनों शुभ फलदायक होती हैं।

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